माहिया, पंजाब, मुक्तक, व्यंग्य गीत, घनाक्षरी, लघुकथा, मुक्तिका, राजस्थानी, त्रिपदि
सृजन सलिला : २८ नवंबर
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सॉनेट
कल
(इटैलियन शैली)
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'आज' के दोनों तरफ 'कल' है,
कल कभी आता नहीं देखा,
कल कभी करता नहीं लेखा,
'ले खा' कभी कहता नहीं कल है।
किलकिल कभी करता नहीं कल है,
कल नहीं खींचे कभी रेखा,
कल कभी देता नहीं धोखा,
कलकल निनादित हो रहा कल है।
कल खिलाता आज को गोदी
आज नभ से ऊगता रवि कल
कल सँजोए आज का सपना।
खेलता कल आज की गोदी
आज नभ में डूबता शशि कल
खिलता कल आज को गोदी।
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सॉनेट
कल
(इंग्लिश शैली)
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'आज' के दोनों तरफ 'कल' है,
इसलिए क्या हुआ बेकल आज?
विश्व बेबस खो रहा 'कल' है,
मनुज पर 'कल' कर रहा है राज।
'अकल' के बिन रह न सकता आज,
'शकल' ही है आज की पहचान,
'नकल' कर वानर न पाता ताज,
'कल' तभी जब पा सकें सम्मान।
आजकल क्या हो रह मत देख,
खेल कुर्सी का रहे सब खेल,
क्या किया किसने नहीं तू लेख,
बीतती जो मौन रहकर झेल।
'कल' सके रख 'सलिल' उन्नत भाल।
'आज' कर श्रम; स्वप्न तब ही पाल।।
२८.११.२०२३
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माहिया
भारत को जानें हम
मातृ भूमि अपनी
गुण गा पहचानें हम।
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पंजाब अनोखा है।
पाँच नदी; गिद्धा
भंगड़ा भी चोखा है।।
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गुरु नानक की बानी
सुन अमरित चखिए
है यह शुभ कल्याणी।।
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जिंदादिल पंजाबी
मुश्किल से लड़ते
किंचित न कभी डरते।।
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पंजाब परिचय
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हंसवाहिनी मातु कर, कृपा मिले वरदान।
बुद्धि ज्ञान मति कला ध्वनि, नाद ताल विज्ञान।
भारत के गुण गा सकूँ, मैया देना शक्ति।
हिंदी में कह-कर सकूँ, मैया भारत-भक्ति।।
भारत को जानें वही, जो ममता से युक्त।
पानी पी पंजाब का, करें भाँगड़ा मुक्त।।
गुरु नानक की वाणी अनुपम। वाहे गुरु फहराया परचम।।
'सत श्री काल' करें अभिवादन। बलिदानी हों फागुन-सावन।।
हरमंदिर साहिब अमृतसर। पंथ खालसा सबसे बढ़कर।
गुरु गोबिंदसिंह अजरामर। सिंह रणजीत वीर नर नाहर।।
वीणा पर ओंकार गूँजता। शिव-श्री; वास्तव जगत पूजता।।
कृषि; धनेश्वरी धारा घर घर। चंचल रेखा गिद्धा सस्वर।।
है अनुपम मिठास गन्ने में। तनिक न कम माहिये सुनने में।।
ले मन जीत गोगिआ कैनी। ईद गले मिल खा ले फैनी।।
बैसाखी पुष्पा बसंत है। सिक्खी-साखी दिग-दिगंत है।।
अंजलि में अनुराधा खुशियाँ। श्वास सुनीता ले गलबहियाँ।।
सतलज रावी व्यास जल, शक्ति न राज्य विपन्न।
झेलम और चिनाब तट, रहे सलिल संपन्न।।
२८.११.२०२१
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मुक्तक
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रात गई है छोड़कर यादों की बारात
रात साथ ले गई है साँसों के नग्मात
रात प्रसव पीड़ा से रह एकाकी मौन
रात न हो तो किस तरह कहिए आए प्रात
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कोशिश पति को रात भर रात सुलाती थाम
श्रांत-क्लांत श्रम-शिशु को दे जी भर आराम
काट आँख ही आँख में रात उनींदी रात
सहे उपेक्षा मौन रह ऊषा ननदी वाम
२८-११-२०२०
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एक व्यंग्य गीत
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ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
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'विथ डिफ़रेंस' पार्टी अद्भुत, महबूबा से पेंग लड़ावै
बात न मन की हो पाए तो, पलक झपकते जेल पठावै
मनमाना किरदारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
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कम जनमत पा येन-केन भी, लपक-लपक सरकार बनावै
'गो-आ' खेल आँख में धूला, झोंक-झोंककर वक्ष फुलावै
सत्ता पा फुँफकारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
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मिले पटकनी तो रो-रोकर, नाहक नंगा नाच दिखावै
रातों रात शपथ लै छाती, फुला-फुला धरती थर्रावै
कैसऊ करो, जुगारै सब कछु
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
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जोड़ी पूँजी लुटा-खर्चकर, धनपतियों को शीश चढ़ावै
रोजगार पर डाका डाले, भूखों को कानून पढ़ावै
अफरा पेट, डकारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
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सरकारी जमीनसेठों को दै दै पार्टी फंड जुटावै
असफलता औरों पर थोपे, दिशाहीन हर कदम उठावै
गुंडा बन दुत्कारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
२८.११.२०१९
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घनाक्षरी
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नागनाथ साँपनाथ, जोड़ते मिले हों हाथ, मतदान का दिवस, फिर निकट है मानिए।
चुप रहे आज तक, अब न रहेंगे अब चुप, ई वी एम से जवाब, दें न बैर ठानिए।।
सारी गंदगी की जड़, दलवाद है 'सलिल', नोटा का बटन चुन, निज मत बताइए-
लोकतंत्र जनतंत्र, प्रजातंत्र गणतंत्र, कैदी न दलों का रहे, नव आजादी लाइए।।
२८-११-२०१८
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लघुकथा-
विकल्प
पहली बार मतदान का अवसर पाकर वह खुद को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था। एक प्रश्न परेशान कर रहा था कि किसके पक्ष में मतदान करे? दल की नीति को प्राथमिकता दे या उम्मीदवार के चरित्र को? उसने प्रमुख दलों का घोषणापत्र पढ़े, दूरदर्शन पर प्रवक्ताओं के वक्तव्य सुने, उम्मीदवीरों की शिक्षा, व्यवसाय, संपत्ति और कर-विवरण की जानकारी ली। उसकी जानकारी और निराशा लगातार बढ़ती गई।
सब दलों ने धन और बाहुबल को सच्चरित्रता और योग्यता पर वरीयता दी थी। अधिकांश उम्मीदवारों पर आपराधिक प्रकरण थे और असाधारण संपत्ति वृद्धि हुई थी। किसी उम्मीदवार का जीवनस्तर और जीवनशैली सामान्य मतदाता की तरह नहीं थी।
गहन मन-मंथन के बाद उसने तय कर लिया था कि देश को दिशाहीन उम्मीदवारों के चंगुल से बचाने और राजनैतिक अवसरवादी दलों के शिकंजे से मुक्त रखने का एक ही उपाय है। मात्रों से विमर्श किया तो उनके विचार एक जैसे मिले। उन सबने परिवर्तन के लिए चुन लिया 'नोटा' अर्थात 'कोई नहीं' का विकल्प।
२८-११-२०१८
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दोहा सलिला
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तज कर वाद-विवाद कर, आँसू का अनुवाद.
राग-विराग भुला "सलिल", सुख पा कर अनुराग.
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भट का शौर्य न हारता, नागर धरता धीर.
हरि से हारे आपदा, बौनी होती पीर.
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प्राची से आ अरुणिमा, देती है संदेश.
हो निरोग ले तूलिका, रच कुछ नया विशेष.
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साँस पटरियों पर रही, जीवन-गाड़ी दौड़.
ईधन आस न कम पड़े, प्यास-प्रयास ने छोड़.
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इसको भारी जिलहरी, भक्ति कर रहा नित्य.
उसे रुची है तिलहरी, लिखता सत्य अनित्य.
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यह प्रशांत तर्रार वह, माया खेले मौन.
अजय रमेश रमा सहित, वर्ना पूछे कौन?
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सत्या निष्ठा सिंह सदृश, भूली आत्म प्रताप.
स्वार्थ न वर सर्वार्थ तज, मिले आप से आप.
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नेह नर्मदा में नहा, कलकल करें निनाद.
किलकिल करे नहीं लहर, रहे सदा आबाद.
२८.११.२०१७
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मुक्तक
आइये मिलकर गले मुक्तक कहें
गले शिकवे गिले, हँस मुक्तक कहें
महाकाव्यों को न पढ़ते हैं युवा
युवा मन को पढ़ सके, मुक्तक कहें
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बहुत सुन्दर प्रेरणा है
सत्य ही यह धारणा है
यदि न प्रेरित हो सका मन
तो मिली बहु तारणा है
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कार्यशाला में न आये, वाह सर!
आये तो कुछ लिख न लाये, वाह सर!
आप ही लिखते रहें, पढ़ते रहें
कौन इसमें सर खपाए वाह सर!
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जगाते रहते गुरूजी मगर सोना है
जागता है नहीं है जग यही रोना है
कह रहे हम पा सकें सब इसी जीवन में
जबकि हम यह जानते सब यहीं खोना है
२८.११.१०१६
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मुक्तिका:
[इस रचना में हिंदी की राजस्थानी भंगिमा के उपयोग का प्रयास है. अनजानी त्रुटियों हेतु अग्रिम क्षमा प्रार्थना]
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म्हारे आँगण चंदा उतरे, आस करूँ हूँ
नाचूँ-गाऊँ, हाथाँ माँ आकास भरूँ हूँ
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म्हारी दोनों फूटें, थारी एक फोड़ दूँ
पड़यो अकाल पे पत्थर, सत्यानास करूँ हूँ
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लाग्या छूट्या नहीं, प्रीत-रँग चढ़यो शीस पै
किसन नहीं हूँ, पर राधा सूँ रास करूँ हूँ
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दिवलै काणी दीठ धरूँला, कपड़ छाणकर
अबकालै सब सुपना बेचूँ, हास करूँ हूँ
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आमू-सामू बात करैलो रामू भैया!
सुपना हाली, सगली बाताँ खास करूँ हूँ
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उणियारे रै बसणों चावूँ चित्त-च्यानणै
रचणों चावूँ म्है खुद नै परिहास करूँ हूँ
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जूझल रै ताराँ नै तोड़र रात-रात भर
मुलकण खातर नाहक 'सलिल' प्रयास करूँ हूँ
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मुक्तिका (राजस्थानी)
लोग
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कोरा सुपणां बुणताँ लोग
क्यूँ बैठा सिर धुणतां लोग
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गैर घराणी को तकतां
गेल बुरी ही चुणतां लोग।
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ठकुरसुहाती भली लगै
बातां भली न सुणतां लोग
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दोष छुपाया बग्लयाँ में
गेहूँ जैसा घुणतां लोग
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कुण निर्दोष पखेरू रा
मारूँ-खाऊँ गुणतां लोग
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मुक्तिका :
रूप की धूप
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रूप की धूप बिखर जाए तो अच्छा होगा
रूप का रूप निखर आए तो अच्छा होगा
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दिल में छाया है अँधेरा सा सिमट जाएगा
धूप का भूप प्रखर आए तो अच्छा होगा
*
मन हिरनिया की तरह खूब कुलाचें भरना
पीर की पीर निथर आए तो अच्छा होगा
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आँख में झाँक मिले नैन से नैना जबसे
झुक उठे लड़ के मिले नैन तो अच्छा होगा
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भरो अँजुरी में 'सलिल' रूप जो उसका देखो
बिको बिन मोल हो अनमोल तो अच्छा होगा
२८.११.२०१५
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नवगीत:
गीत पुराने छायावादी
मरे नहीं
अब भी जीवित हैं.
तब अमूर्त
अब मूर्त हुई हैं
संकल्पना अल्पनाओं की
कोमल-रेशम सी रचना की
छुअन अनसजी वनिताओं सी
गेहूँ, आटा, रोटी है परिवर्तन यात्रा
लेकिन सच भी
संभावनाऐं शेष जीवन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
बिम्ब-प्रतीक
वसन बदले हैं
अलंकार भी बदल गए हैं.
लय, रस, भाव अभी भी जीवित
रचनाएँ हैं कविताओं सी
लज्जा, हया, शर्म की मात्रा
घटी भले ही
संभावनाऐं प्रणय-मिलन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
कहे कुंडली
गृह नौ के नौ
किन्तु दशाएँ वही नहीं हैं
इस पर उसकी दृष्टि जब पडी
मुदित मग्न कामना अनछुई
कौन कहे है कितनी पात्रा
याकि अपात्रा?
मर्यादाएँ शेष जीवन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
***
त्रिपदियाँ
प्राण फूँक निष्प्राण में, गुंजित करता नाद
जो- उससे करिये 'सलिल', आजीवन संवाद
सुख-दुःख जो वह दे गहें, हँस- न करें फ़रियाद।
*
शर्मा मत गलती हुई, कर सुधार फिर झूम
चल गिर उठ फिर पग बढ़ा, अपनी मंज़िल चूम
फल की आस किये बिना, काम करे हो धूम।
*
करी देश की तिजोरी, हमने अब तक साफ़
लें अब भूल सुधार तो, खुदा करेगा माफ़?
भष्टाचार न कर- रहें, साफ़ यही इन्साफ।
२८.११.२०१४
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