लघुकथा:
स्वजन तंत्र
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राजनीति विज्ञान के शिक्षक ने जनतंत्र की परिभाषा तथा विशेषताएँ बताने के बाद भारत को विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र बताया तो एक छात्र से रहा नहीं गया. उसने अपनी असहमति दर्ज करते हुए कहा- ' गुरु जी! भारत में जनतंत्र नहीं स्वजन तंत्र है.'
' किताब में ऐसे किसी तंत्र का नाम नहीं है.' - गुरु जी बोले.
' कैसे होगा? यह हमारी अपनी खोज है और भारत में की गयी खोज को किताबों में इतनी जल्दी जगह मिल ही नहीं सकती. यह हमारे शिक्षा के पाठ्य क्रम में भी नहीं है लेकिन हमारी ज़िन्दगी के पाठ्य क्रम का पहला अध्याय यही है जिसे पढ़े बिना आगे का कोई पाठ नहीं पढ़ा जा सकता.' छात्र ने कहा.
' यह स्वजन तंत्र होता क्या है? यह तो बताओ.' -सहपाठियों ने पूछा.
' स्वजन तंत्र एसा तंत्र है जहाँ चंद चमचे इकट्ठे होकर कुर्सी पर लदे नेता के हर सही-ग़लत फैसले को ठीक बताने के साथ-साथ उसके वंशजों को कुर्सी का वारिस बताने और बनाने की होड़ में जी-जान लगा देते हैं. जहाँ नेता अपने चमचों को वफादारी का ईनाम और सुख-सुविधा देने के लिए विशेष प्राधिकरणों का गठन कर भारी धन राशि, कार्यालय, वाहन आदि उपलब्ध कराते हैं जिनका वेतन, भत्ता, स्थापना व्यय तथा भ्रष्टाचार का बोझ झेलने के लिए आम आदमी को कानून की आड़ में मजबूर कर दिया जाता है. इन प्राधिकरणों में मनोनीत किए गए चमचों को आम आदमी के दुःख-दर्द से कोई सरोकार नहीं होता पर वे जन प्रतिनिधि कहलाते हैं. वे हर काम का ऊंचे से ऊंचा दाम वसूलना अपना हक मानते हैं और प्रशासनिक अधिकारी उन्हें यह सब कराने के उपाय बताते हैं.'
' लेकिन यह तो बहुत बड़ी परिभाषा है, याद कैसे रहेगी?' छात्र नेता के चमचे ने परेशानी बताई.
' चिंता मत कर. सिर्फ़ इतना याद रख जहाँ नेता अपने स्वजनों और स्वजन अपने नेता का हित साधन उचित-अनुचित का विचार किए बिना करते हैं और जनमत, जनहित, देशहित जैसी भ्रामक बातों की परवाह नहीं करते वही स्वजन तंत्र है लेकिन किताबों में इसे जनतंत्र लिखकर आम आदमी को ठगा जाता है ताकि वह बदलाव की मांग न करे.'
गुरु जी अवाक् होकर राजनीति के व्यावहारिक स्वरुप का ज्ञान पाकर धन्य हो रहे थे.
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लघुकथा
सफलता
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गुरु छात्रों को नीति शिक्षा दे रहे थे- ' एकता में ताकत होती है. सबको एक साथ हिल-मिलकर रहना चाहिए- तभी सफलता मिलती है.' ' नहीं गुरु जी! यह तो बीती बात है, अब ऐसा नहीं होता. इतिहास बताता है कि सत्ता के लिए आपस में लड़ने वाले जितने अधिक नेता जिस दल में होते हैं' उसके लत्ता पाने के अवसर उतने ज्यादा होते हैं. समाजवादियों के लिए सत्ता अपने सुख या स्वार्थ सिद्धि का साधन नहीं जनसेवा का माध्यम थी. वे एक साथ मिलकर चले, धीरे-धीरे नष्ट हो गए. क्रांतिकारी भी एक साथ सुख-दुःख सहने कि कसमें खाते थे. अंतत वे भी समाप्त हो गए. जिन मौकापरस्तों ने एकता की फ़िक्र छोड़कर अपने हित को सर्वोपरि रखा, वे आज़ादी के बाद से आज तक येन-केन-प्रकारेण कुर्सी पर काबिज हैं.' -होनहार छात्र बोला. गुरु जी चुप!
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लघु कथा
मुखौटे
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मेले में बच्चे मचल गए- 'पापा! हमें मुखौटे चाहिए, खरीद दीजिए.'
हम घूमते हुए मुखौटों की दुकान पर पहुंचे. मैंने देखा दुकान पर जानवरों, राक्षसों, जोकरों आदि के ही मुखौटे थे. मैंने दुकानदार से पूछा- 'क्यों भाई! आप राम. कृष्ण, ईसा. पैगम्बर, बुद्ध, राधा, मीरा, गांधी आदि के मुखौटे क्यों नहीं बेचते?'
'कैसे बेचूं? राम की मर्यादा, कृष्ण का चातुर्य, ईसा की क्षमा, पैगम्बर की दया, बुद्ध की करुना, राधा का समर्पण, मीरा का प्रेम, गाँधी की दृष्टि कहीं देखने को मिले तभी तो मुखौटों पर अंकित कर पाऊँगा. आज-कल आदमी के चेहरे पर जो गुस्सा, धूर्तता, स्वार्थ, हिंसा, घृणा और बदले की भावना देखता हूँ उसे अंकित कराने पर तो मुखौटा जानवर या राक्षस का ही बनता है. आपने कहीं वे दैवीय गुण देखे हों तो बताएं ताकि मैं भी देखकर मुखौटों पर अंकित कर सकूं.' -दुकानदार बोला. मैं कुछ कह पता उसके पहले ही मुखौटे बोल पड़े- ' अगर हम पर वे दैवीय गुण अंकित हो भी जाएँ तो क्या कोई ऐसा चेहरा बता सकते हो जिस पर लगकर हमारी शोभा बढ़ सके?' -मुखौटों ने पूछा.
मैं निरुत्तर होकर सर झुकाए आगे बढ़ गया.
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लघुकथा:
शब्द और अर्थ
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शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त होने पर चैन की साँस ली और कमर सीधी करने के लिए लेटा ही था कि काम करने की मेज पर कुछ हलचल सुनाई दी. वह मन मारकर उठा, देखा मेज पर शब्द समूहों में से कुछ शब्द बाहर आ गए थे. उसने पढ़ा - वे शब्द थे प्रजातंत्र, गणतंत्र, जनतंत्र और लोकतंत्र .
हैरान होते हुए कोशकार ने पूछा- ' अभी-अभी तो मैंने तुम सबको सही स्थान पर रखा था, तुम बाहर क्यों आ गए?'
' इसलिए कि तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे सरासर ग़लत लगते हैं.एक स्वर से सबने कहा.
'एक-एक कर बोलो तो कुछ समझ सकूं.' कोशकार ने कहा.
'प्रजातंत्र प्रजा का प्रजा के लिया प्रजा के द्वारा नहीं, नेताओं का नेताओं के लिए नेताओं के द्वारा स्थापित शासन तंत्र हो गया है' - प्रजातंत्र बोला.
गणतंत्र ने अपनी आपत्ति बताई- ' गणतंत्र का आशय उस व्यवस्था से है जिसमें गण द्वारा अपनी रक्षा के लिए प्रशासन को दी गयी गन का प्रयोग कर प्रशासन गण का दमन जन प्रतिनिधियों कि सहमति से करते हों.'
' जनतंत्र वह प्रणाली है जिसमें जनमत की अवहेलना करनेवाले जनप्रतिनिधि और जनगण की सेवा के लिए नियुक्त जनसेवक मिलकर जनगण कि छाती पर दाल दलना अपना संविधान सम्मत अधिकार मानते हैं. '- जनतंत्र ने कहा.
लोकतत्र ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए बताया- 'लोकतंत्र में लोक तो क्या लोकनायक की भी उपेक्षा होती है. दुनिया के दो सबसे बड़ा लोकतंत्रों में से एक अपने हित की नीतियां बलात अन्य देशों पर थोपता है तो दूसरे की संसद में राजनैतिक दल शत्रु देश की तुलना में अन्य दल को अधिक नुकसानदायक मानकर आचरण करते हैं.'
-कोशकार स्तब्ध रह गया.
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लघुकथा:
निपूती भली थी
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बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली. अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया.
अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आंखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली. उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए, तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुंह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आई.
उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूंदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे. दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीडाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे. नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुंह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुंह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गा कर ख़ुद को धन्य मान रहा था.
अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता कस मुंह से निकला- 'ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी.
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लघुकथा
गुरु दक्षिणा
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एकलव्य का अद्वितीय धनुर्विद्या अभ्यास देखकर गुरुवार द्रोणाचार्य चकराए कि अर्जुन को पीछे छोड़कर यह श्रेष्ठ न हो जाए. उन्होंने गुरु दक्षिणा के बहाने एकलव्य का बाएँ हाथ का अंगूठा मांग लिया और यह सोचकर प्रसन्न हो गए कि काम बन गया. प्रगत में आशीष देते हुए बोले- 'धन्य हो वत्स! तुम्हारा यश युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर अमर रहेगा.
'आपकी कृपा है गुरुवर!' एकलव्य ने बाएँ हाथ का अंगूठा गुरु दक्षिणा में देकर विकलांग होने का प्रमाणपत्र बनवाया और छात्रवृत्ति का जुगाड़ कर लिया. छात्रवृत्ति के रुपयों से प्लास्टिक सर्जरी कराकर अंगूठा जुड़वाया और द्रोणाचार्य एवं अर्जुन को ठेंगा बताते हुए 'अंगूठा' चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव समर में कूद पड़ा.
तब से उसके वंशज आदिवासी द्रोणाचार्य से शिक्षा न लेकर अंगूठा लगाने लगे.
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लघुकथा:
मुखडा देख ले
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कक्ष का द्वार खोलते ही चोंक पड़े संपादक जी. गाँधी जी के चित्र के ठीक नीचे विराजमान तीनों बंदर इधर-उधर ताकते हुए मुस्कुरा रहे थे. आँखें फाड़कर घूरते हुए पहले बंदर के गले में लटकी पट्टी पर लिखा था- ' बुरा ही देखो'.
हाथ में माइक पकड़े दिगज नेता की तरह मुंह फाड़े दूसरे बंदर का कंठहार बनी पट्टी पर अंकित था- 'बुरा ही बोलो'.
' बुरा ही सुनो' की पट्टी दीवार से कान सटाए तीसरे बंदर के गले की शोभा बढ़ा रही थी.
' अरे! क्या हो गया तुम तीनों को?' गले की पट्टियाँ बदलकर मुट्ठी में नोट थामकर मेज के नीचे हाथ क्यों छिपाए हो?] संपादक जी ने डपटते हुए पूछा.
'हमने हर दिन आपसे कुछ न कुछ सीखा है. कोई कमी रह गई हो तो बताएं.'
ठगे से खड़े संपादक जी के कानों में गूँज रहा था- 'मुखडा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ...'
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लघुकथा:
काल की गति
'हे भगवन! इस कलिकाल में अनाचार-अत्याचार बहुत बढ़ गया है. अब तो अवतार लेकर पापों का अंत कर दो.' - भक्त ने भगवान से प्रार्थना की.
' नहीं कर सकता.' भगवान् की प्रतिमा में से आवाज आयी .
' क्यों प्रभु?'
'काल की गति.'
'मैं कुछ समझा नहीं.'
'समझो यह कि परिवार कल्याण के इस समय में केवल एक या दो बच्चों के होते राम अवतार लूँ तो लक्ष्मण, शत्रुघ्न और विभीषण कहाँ से मिलेंगे? कृष्ण अवतार लूँ तो अर्जुन, नकुल और सहदेव के अलावा कौरव ९८ कौरव भी नहीं होंगे. चित्रगुप्त का रूप रखूँ तो १२ पुत्रों में से मात्र २ ही मिलेंगे. तुम्हारा कानून एक से अधिक पत्नियाँ भी नहीं रखने देगा तो १२८०० पटरानियों को कहाँ ले जाऊंगा? बेचारी द्रौपदी के ५ पतियों की कानूनी स्थिति क्या होगी?
भक्त और भगवान् दोनों को चुप देखकर ठहाका लगा रही थी काल की गति.
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लघुकथा:
बंदर और टोपीवाला
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थकान से चूर टोपीवाला पेड़ के नीचे सो गया. नींद खुली तो देखा उसकी बहुत सी टोपियाँ पेडों पर बैठे बंदरों ने पहन रखी हैं. उसे बचपन में पढी कहानी याद आयी जिसमें बताया गया था कि बंदर नकलची होते हैं. उसने अपने सर पर पहनी टोपी ज़मीन पर फेंक दी.
पेड़ पर बैठे चतुर बंदर मन ही मन हँसे- 'रे आदमी! तू इस इक्कीसवीं सदी में भी पंचतंत्र काल की बुद्धि रखता है किंतु हम समय के साथ समझदार हो गए हैं.'
बंदरों को अपनी-अपनी टोपियाँ फेंकते देखकर टोपीवाला खुश हुआ कि उसकी युक्ति काम कर गयी, अब टोपियाँ वापिस मिल जायेंगी लेकिन उसके देखते ही देखते बंदरों ने लपककर न केवल फेंकी हुई अपितु टोकनी में छूटी हुई टोपियाँ भी उठा लीं और अपना सिर धुन कर रो रहे टोपीवाले से बोले- ' ही रोने से a लाभ? आगे से बिना बीमा कराये टोपी बेचने मत निकलना. अभी मंत्री जी यहाँ से मत मँगाने के लिए निकलेंगे. रोना छोड़ कर अपने साथियों को इकट्ठा कर मंत्री जी से राहत राशि ले ले. एसा मौका फ़िर कहाँ मिलेगा? राहत राशि में से आधी हमारे लिए फल लाने में खर्च करना तो हम सब टोपियाँ लौटा देंगे. ये हमारे किस कम की?
टोपीवाला जुट गया बंदरों की सलाह का पालन करने के लिए.
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लघुकथा:
सीख
भारत माता ने अपने घर में जन-कल्याण का जानदार आँगन बनाया. उसमें सिक्षा की शीतल हवा, स्वास्थ्य का निर्मल नीर, निर्भरता की उर्वर मिट्टी, उन्नति का आकाश, दृढ़ता के पर्वत, आस्था की सलिला, उदारता का समुद्र तथा आत्मीयता की अग्नि का स्पर्श पाकर जीवन के पौधे में प्रेम के पुष्प महक रहे थे.
सिर पर सफ़ेद टोपी लगाये एक बच्चा आया, रंग-बिरंगे पुष्प देखकर ललचाया. पुष्प पर सत्ता की तितली बैठी देखकर उसका मन ललचाया, तितली को पकड़ने के लिए हाथ बढाया, तितली उड़ गयी. बच्चा तितली के पीछे दौड़ा, गिरा, रोते हुए रह गया खडा.
कुछ देर बाद भगवा वस्त्रधारी दूसरा बच्चा खाकी पैंटवाले मित्र के साथ आया. सरोवर में खिला कमल का पुष्प उसके मन को भाया, मन ललचाया, बिना सोचे कदम बढाया, किनारे लगी काई पर पैर फिसला, गिरा, भीगा और सिर झुकाए वापिस लौट गया.
तभी चक्र घुमाता तीसरा बच्चा अनुशाशन को तोड़ता, शोर मचाता घर में घुसा और हाथ में हँसिया-हथौडा थामे चौथा बच्चा उससे जा भिड़ा. दोनों टकराए, गिरे, कांटें चुभे और वे चोटें सहलाते सिसकने लगे.
हाथी की तरह मोटे, अक्ल के छोटे, कुछ बच्चे एक साथ धमाल मचाते आए, औरों की अनदेखी कर जहाँ मन हुआ वहीं जगह घेरकर हाथ-पैर फैलाये. धक्का-मुक्की में फूल ही नहीं पौधे भी उखाड़ लाये.
तभी भारत माता घर में आयीं, कमरे की दुर्दशा देखकर चुप नहीं रह पायीं, दुःख के साथ बोलीं- ' मत दो झूटी सफाई, मत कहो कि घर की यह दुर्दशा तुमने नहीं तितली ने बनाई. काश तुम तितली को भुला पाते, काँटों ओ समय रहते देख पाते, मिल-जुल कर रह पाते, ख़ुद अपने लिए लड़ने की जगह औरों के लिए कुछ कर पाते तो आदमी बन जाते.
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लघुकथा:
मां - बेटा
एक बार आर्यावर्त स्थित भारतवर्ष में उल्लू, कुत्ते और आदमी के बच्चे एकत्र होते भये... तीनों बच्चे कुछ हिचक के बाद बात-चीत में लीन हो गए.
तभी उल्लुओ का एक झुंड निकला, उल्लू-पुत्र फुर्र से उडा, दायें-बांयें मुड़ा, अपनी मां के निकट आया, मां ने उसे लाड से दुलराया-थपकाया और वह मुस्कुराते-गुनगुनाते हुए अपने दोस्तों से जा मिला.
कुछ देर बाद कुत्तों का एक समूह दौड़ता हुआ आया, पिल्ले का मन ललचाया, कूँ...कूँ... करते हुए गया, अपनी मां से मिला, दुग्धपान किया और दम हिलाता, सीना फूलता दोस्तों से आ मिला.
कुछ और समय बीता. इस बार कुछ औरतें इठलाती, बल खाती, बिजली गिराती गुजरीं. तीनों बच्चों को देखकर आगे बढ़ने लगीं. उल्लू और कुत्ते के बच्चों ने आदम की औलाद से कहा- , जा तू भी अपनी मां से मिल आ.'
'पर मैं उसे पहचानूँगा कैसे?' - बच्चे ने पूछा. उल्लू सुत हैरानी से बोला- 'क्या मां को भी पहचानना होता है?
' हाँ भाई, इसकी जात में मांएं लाल-सफ़ेद रंग पोतकर निकलती हैं न' - श्वान-पुत्र ने बताया.
'तो क्या हुआ? मां-बेटे तो प्यार से पहचाने जाते हैं. ये जाएगा तो इसकी मां ही इसे पहचान लेगी.' उल्लू-सुत बोला.
'नहीं भाई, आदम जात में प्यार ही सब कुछ नहीं होता. वे लोग दिखावे में ज्यादा भरोसा करते हैं, यह जाएगा तो इसकी मां को अच्छा नहीं लगेगा.' श्वान-पुत्र ने सचाई बताई.
आदम की औलाद आंखों में आंसू भरे मौन रहकर बहुत कुछ कह रही थी.
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लघुकथा:
जनगण और आज़ादी
भारत माता के बगीचे में लाडली आज़ादी जनगण के साथ खेल रही थी. अचानक तूफ़ान आ गया, अँधेरा छा गया, तेज हवाएं चलने लगीं.
अभी तक अपने साहस की डींग मर रहे जनगण के डर से होश उड़ गए. वह थर-थर कांपने लगा, भय से आँखें मूँद लीं उसने.
तभी आज़ादी की चीख सुनाई दी. वह भीगती-दौड़ती हुई आयी. थर-थर कांपती आज़ादी की रुलाई सुनते ही जनगण का साहस और जोश लौट आया. 'मेरे रहते यह सुंदर, कोमल, नन्ही बच्ची डरे तो मेरे लिए शर्म की बात है' - उसने सोचा.
डरो मत आज़ादी. मेरे रहते कुचक्रों की बिजली, महत्वाकांक्षाओं के ओले, सत्ता की आंधी, लोभ की बरसात कोई भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता. मैं अपना सब कुछ दांव पर लगाकर भी तुम्हें बचा लूँगा.'
जनगण की बांहों में सुरक्षा पाकर आज़ादी मुस्कुराने लगी.
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लघुकथा:
जाकी रही भावना जैसी
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- 'भारत भूमि रत्नों की खान है.' एक न कहा.
- 'यह मुल्क तहजीब और अदब से मालामाल है.' दूसरा बोला.
- 'हमारा वतन जन्नत से भी ज्यादा खूबसूरत है.'
- 'इस सरजमीं का जर्रा-जर्रा कीमती है.''
- 'ऊंचे पर्वत, गहरी नदियाँ, पैर धोता सागर, भगवानों की भूमि... न जाने क्या-क्या कहकर वे देश की आज़ादी का जश्न मना रहे थे. 'बेटा! तुम भी तो कुछ बोलो' -उनमें से एक ने निकट खड़े बच्चे का हौसला बढाया .
- ' मेरे लिए तो यह मां है, कभी दुलारने-कभी डांटनेवाली. मुश्किल में अपने आँचल में छिपा कर जीवन देनेवाली मां.' -बच्चे ने कहा.
जाने की जल्दी में किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया पर ममता से निहार रही थी भारत माता.
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लघुकथा:
श्रवण कुमार
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श्रवण कुमार को चुनाव चक्रम में चकराने का चस्का लगा. उसने अपनी जीत के अवसर पक्के करने के लिए अपनी पुराणी छवि को भुनाने का निर्णय दिया. पिता 'आदर्श' और माता 'जनसेवा' उसे अपनी राह का रोड़ा प्रतीत हुए. डॉक्टर को मिलकर दोनों की आंखों पर राष्ट्र-निर्माण की पट्टी बंधवाई फ़िर प्रचार के बांस में साक्षात्कार और समाचार की टोकनी बांधकर, उनमें माता-पिता को बैठाकर चल दिया जन-समर्थन पाने की तीर्थ यात्रा पर.
धर्म-प्राण देश की धर्म-भीरु जनता ने श्रवण कुमार को सिर-आँखों पर बैठाया और चुनाव में विजयी बना दिया.
सत्ता पाते ही श्रवण कुमार अति व्यस्त हो गया. बूढे माता-पता की देख-भाल दशरथ को सौंपकर श्रवण कुमार चिंता-मुक्त हो गया. पाँच वर्ष जाते देर न लगी. पुनः चुनाव आ गए...खोजने पर बांस और टोकनी तो मिले पर बूढे माता-पिता की देख-भाल करनेवाले दशरथ को विरोधी दल की ओर से चुनाव लड़ते देख श्रवण कुमार के हाथ-पैर फूल गए.
अपने माता-पिता को लेकर मत मांगते दशरथ को देख कर श्रवण कुमार को अपनी भूल का अनुभव हुआ पर...
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लघुकथा:
स्वर्ग-नर्क
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एक देश में शहीदों और सत्याग्रहियों ने मिलकर स्वतंत्रता प्राप्तकर लोकतंत्र का पौधारोपण किया. उनके साथियों और बच्चों को पौधे के चारों ओर लगी हरी घास, वंदे मातरम गाती हवा, कलकल बहती सलिल-धार बहुत अच्छी लगी.
पौधे के पेड़ बनते ही हाथ के पंजे का उपयोग कर एक बच्चे ने एक डाल पर झूला डालकर कब्जा कर लिया.
हँसिया-हथोडा लिए दूसरे बच्चे ने एक अन्य मोटी डाल देखकर आसन जमा लिया. तीसरी शाखा पर कमल का फूल लेकर आए लडके ने अपना झंडा फहरा दिया. कुछ और बच्चे चक्र, हल, किसान, हाथी आदि ले आए.
आपाधापी और धमाचौकडी बढ़ने पर जनगण की दोशाले जैसी हरी घास बेरहमी से कुचली जाकर सिसकने लगी. झूलों में आसमान से होड़ लेती पेंगें भरते बच्चे जमीन से रिश्ता भूलने लगे. लोकतंत्र का फलता-फूलता पेड़ अपनी हर डाल को क्षत-विक्षत पाकर आर्तनाद करने लगा.
अपने पेड़ बेटे के दर्द से व्यथित धरती माता आसमान से पूछ रही है मुक्ति की राह. बच्चों में बढती जा रही है अधिक से अधिक पाने की चाह, फ़ैल रहा है विषैला दाह. जन-आकाक्षाओं की तितलियों को कहीं नहीं मिल पा रही है पनाह, अनाचार करता हर बच्चा ख़ुद ही अपनी पीठ ठोंक कर कर रहा है वाह-वाह, और सुनकर भी अनसुनी कर रहा है जनगण की कराह. ऊपरवाले से नीचेवाले पूछ रहे हैं कब तक भरना होग आह? स्वर्ग के नर्क में बदलने की कब रुकेगी राह?
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लघुकथा:
गाँधी और गाँधीवाद
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'बापू आम आदमी के प्रतिनिधि थे. जब तक हर भारतीय को कपडा न मिले, तब तक कपडे न पहनने का संकल्प उनकी महानता का जीवत उदाहरण है. वे हमारे प्रेरणास्रोत हैं' -नेताजी भाषण फटकारकर मंच से उतरकर अपनी मंहगी आयातित कार में बैठने लगे तो पत्रकारों ऐ उनसे कथनी-करनी में अन्तर का कारन पूछा.
नेताजी बोले- 'बापू पराधीन भारत के नेता थे. उनका अधनंगापन पराये शासन में देश की दुर्दशा दर्शाता था, हम स्वतंत्र भारत के नेता हैं. अपने देश के जीवनस्तर की समृद्धि तथा सरकार की सफलता दिखाने के लिए हमें यह ऐश्वर्य भरा जीवन जीना होता है. हमारी कोशिश तो यह है की हर जनप्रतिनिधि को अधिक से अधिक सुविधाएं दी जायें.'
' चाहे जन प्रतिनिधियों की सविधाएं जुटाने में देश के जनगण क दीवाला निकल जाए. अभावों की आग में देश का जन सामान्य जलाता रहे मगर नेता नीरो की तरह बांसुरी बजाते ही रहेंगे- वह भी गाँधी जैसे आदर्श नेता की आड़ में.' - एक युवा पत्रकार बोल पड़ा. अगले दिन से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गया.
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लघुकथा:
समय का फेर
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गुरु जी शिष्य को पढ़ना-लिखना सिखाते परेशां हो गए तो खीझकर मारते हुए बोले- ' तेरी तकदीर में तालीम है नहीं तो क्या करुँ? तू मेरा और अपना दोनों का समय बरबाद कार रहा है. जा भाग जा, इतने समय में कुछ और सीखेगा तो कमा खायेगा.
गुरु जी नाराज तो रोज ही होते थे लेकिन उस दिन चेले के मन को चोट लग गयी. उसने विद्यालय आना बंद कर दिया, सोचा 'आज भगा रहे हैं. ठीक है भगा दीजिये, लेकिन मैं एक दिन फ़िर आऊंगा... जरूर आऊंगा.
गुरु जी कुछ दिन दुखी रहे कि व्यर्थ ही नाराज हुए, न होते तो वह आता ही रहता और कुछ न कुछ सीखता भी. धीरे-धीरे. गुरु जी वह घटना भूल गए.
कुछ साल बाद गुरूजी एक अवसर पर विद्यालय में पधारे अतिथि का स्वागत कर रहे थे. तभी अतिथि ने पूछा- 'आपने पहचाना मुझे?
गुरु जी ने दिमाग पर जोर डाला तो चेहरा और घटना दोनों याद आ गयी किंतु कुछ न कहकर चुप ही रहे.
गुरु जी को चुप देखकर अतिथि ही बोला- 'आपने ठीक पहचाना. मैं वही हूँ. सच ही मेरे भाग्य में विद्या पाना नहीं है, आपने ठीक कहा था किंतु विद्या देनेवालों का भाग्य बनाना मेरे भाग्य में है यह आपने नहीं बताया था.
गुरु जी अवाक् होकर देख रहे थे समय का फेर.
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लघुकथा:
जनतंत्र
* 'जनतंत्र की परिभाषा बताओ' राजनीतिशास्त्र के शिक्षक ने पूछा.
' जहाँ जन का भाग्य विधाता तंत्र हो' - एक छात्र ने कहा.
' जहाँ ग़रीब जनगण के प्रतिनिधि अमीर हों.' - दूसरे ने कहा.
' जहाँ संकटग्रस्त जनगण की दशा जानने के लिए प्रतिनिधि आसमान की सैर करें.' तीसरे की राय थी.
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लघुकथा:
रावण-दहन- 'दादाजी! दशहरे पर रावण का पुतला क्यों जलाया जता है?'
- ' रावण ने सीता मैया का धोखे से अपहरण कर विश्वासघात किया था. इसलिए.'
- 'आप उस दिन कह रहे थे हमारे विधायक ने जनता से विश्वासघात किया है तब उसको क्यों नहीं...'
- 'चुप राह. बकवास मत कर.'
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लघुकथा:
एकलव्य
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
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- आचार्य संजीव 'सलिल' संपादक दिव्य नर्मदा समन्वयम , २०४ विजय अपार्टमेन्ट, नेपिअर टाऊन, जबलपुर ४८२००१ वार्ता:०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४