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शुक्रवार, दिसंबर 01, 2023

मुक्तक, दोहा, कुण्डलिया, वीप्सा अलंकार, नवगीत,

सलिल -सृजन १ दिसंबर 
सॉनेट
समय छिछोरा
*
छेड़ रहा है उम्मीदों को समय छिछोरा, 
आशा  के पग रुक गए, भय से एसिड देख,
ब्लैक मेल अरमान हो, कौन करेगा लेख?
भूल रहा है निज भाषा को मनुज अधूरा। 
कौन पढ़े क्या लिखा?, कोशिशी कागज कोरा,
कहें हथेली पर नहीं, खिंची सफलता रेख,
नियम हथौड़ा हो गए, रीति बन गई मेख, 
कुर्सी बैठ कागा चमचा कहता गोरा। 
दीप-ज्योति में कराकर, शक तूफान तलाक,
ठठा रहा है बेधड़क, कहाँ करें फ़रियाद?
वादों को जुमला बता, चोर बन गया शाह। 
बिसर गया 'बतखाव' मन, रोज कर रहा टाक,
नाक कटाते 'लिव इनी', खुद को कार बर्बाद,
खुद जाते पर पूछते 'कहाँ जा रही राह?' 
१.१२.२०२३ 
***
https://www.facebook.com/sanjiv.salil/videos/10219260995697892?idorvanity=497703550290946
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मुक्तक
रचनाधर्मी साथ हमारा, हो प्रभात खुशहाल
दोपहरी उपलब्धि दे, संध्या सज्जित भाल
निशा शांति विश्राम ले, बोले 'मीचो नैन-
सुखद स्वप्न अनगिन दिखा सबको दीनदयाल'
१.१२.२०२१
***
कार्य शाला:
दोहा से कुण्डलिया
*
बेटी जैसे धूप है, दिन भर करती बात।
शाम ढले पी घर चले, ले कर कुछ सौगात।। -आभा सक्सेना 'दूनवी'
लेकर कुछ सौगात, ढेर आशीष लुटाकर।
बोल अनबोले हो, जो भी हो चूक भुलाकर।।
रखना हरदम याद, न हो किंचित भी हेटी।
जाकर भी जा सकी, न दिल से प्यारी बेटी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
***
दोहा सलिला
*
दोहा सलिला निर्मला, सारस्वत सौगात।
नेह नर्मदा सनातन, अवगाहें नित भ्रात
*
अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है, शब्द-शब्द सौगात।
चरण-चरण में सार है, पद-पद है अवदात।।
*
दोहा दिव्य दिनेश दे, तम हर नवल प्रभात।
भाषा-भूषा सुरुचिमय, ज्यों पंकज जलजात।।
*
भाव, कहन, रस, बिंब, लय, अलंकार सज गात।
दोहा वनिता कथ्य है, अजर- अम्र अहिवात।।
*
दोहा कम में अधिक कह, दे संदेशा तात।
गागर में सागर भरे, व्यर्थ न करता बात।।
१.१२.२०१८
...
दोहा
कथ्य भाव लय छंद रस, पंच तत्व आधार.
मुरली-धुन सा कवित रच, पा पाठक से प्यार
मुक्तक
उषा-स्वागत कर रही है चहक गौरैया
सूर्य-वंदन पवन करता नाच ता-थैया
बैठका मुंडेर कागा दे रहा संदेश-
तानकर रजाई मनुज सो रहा भैया...
मत जगाओ, जागकर अन्याय करेगा
आदमी से आदमी भी जाग डरेगा
बाँटकर जुमले ठगेगा आदमी खुद को
छीन-झपट, आग लगा आप मरेगा
...
नमन तुमको कर रहा सोया हुआ ही मैं
राह दिखाता रहा, खोया हुआ ही मैं
आँख बंद की तो हुआ सच से सामना
जाना कि नहीं दूध का धोया हुआ हूं मैं
१.१२.२०१७
...
अलंकार सलिला ३७
वीप्सा अलंकार
*
कविता है सार्थक वही, जिसका भाव स्वभाव।
वीप्सा घृणा-विरक्ति है, जिससे कठिन निभाव।।
अलंकार वीप्सा वहाँ, जहाँ घृणा-वैराग।
घृणा हरे सुख-चैन भी, भर जीवन में आग।।
जहाँ शब्द की पुनरुक्ति द्वारा घृणा या विरक्ति के भाव की अभिव्यक्ति की जाती है वहाँ वीप्सा अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. शिव शिव शिव कहते हो यह क्या?
ऐसा फिर मत कहना।
राम राम यह बात भूलकर,
मित्र कभी मत गहना।।
२. राम राम यह कैसी दुनिया?
कैसी तेरी माया?
जिसने पाया उसने खोया,
जिसने खोया पाया।।
३. चिता जलाकर पिता की, हाय-हाय मैं दीन।
नहा नर्मदा में हुआ, यादों में तल्लीन।।
४ उठा लो ये दुनिया, जला दो ये दुनिया,
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया।
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?'
५. मेरे मौला, प्यारे मौला, मेरे मौला...
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे,
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे।
६. नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे ढूँढूँ रे सँवरिया!
पिया-पिया रटते मैं तो हो गयी रे बँवरिया!!
७. मारो-मारो मार भगाओ आतंकी यमदूतों को।
घाट मौत के तुरत उतारो दया न कर अरिपूतों को।।
वीप्सा में शब्दों के दोहराव से घृणा या वैराग्य के भावों की सघनता दृष्टव्य है.
१.१२.२०१५
***

नवगीत

पत्थरों के भी कलेजे
हो रहे पानी
.
आदमी ने जब से
मन पर रख लिए पत्थर
देवता को दे दिया है
पत्थरों का घर
रिक्त मन मंदिर हुआ
याद आ रही नानी
.
नाक हो जब बहुत ऊँची
बैठती मक्खी
कब गयी कट?, क्या पता?
उड़ गया कब पक्षी
नम्रता का?, शेष दुर्गति
अहं ने ठानी
.
चुराते हैं, झुकाते हैं आँख
खुद से यार
बिन मिलाये बसाते हैं
व्यर्थ घर-संसार
आँख को ही आँख
फूटी आँख ना भानी
.
चीर हरकर माँ धरा का
नष्टकर पोखर
पी रहे जल बोतलों का
हाय! हम जोकर
बावली है बावली
पानी लिए धानी
१.१२.२०१४

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