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मंगलवार, नवंबर 28, 2023

माहिया, पंजाब, मुक्तक, व्यंग्य गीत, घनाक्षरी, लघुकथा, मुक्तिका, राजस्थानी, त्रिपदि

सृजन सलिला : २८ नवंबर 
*
सॉनेट 
कल 
(इटैलियन शैली)
*
'आज' के दोनों तरफ 'कल' है, 
कल कभी आता नहीं देखा, 
कल कभी करता नहीं लेखा, 
'ले खा' कभी कहता नहीं कल है। 
किलकिल कभी करता नहीं कल है, 
कल नहीं खींचे कभी रेखा,
कल कभी देता नहीं धोखा,
कलकल निनादित हो रहा कल है।  
कल खिलाता आज को गोदी 
आज नभ से ऊगता रवि कल 
कल सँजोए आज का सपना। 
खेलता कल आज की गोदी 
आज नभ में डूबता शशि कल 
खिलता कल आज को गोदी। 
***
सॉनेट 
कल 
(इंग्लिश शैली)
*  
'आज' के दोनों तरफ 'कल' है, 
इसलिए क्या हुआ बेकल आज?
विश्व बेबस खो रहा 'कल' है, 
मनुज पर 'कल' कर रहा है राज। 
'अकल' के बिन रह न सकता आज, 
'शकल' ही है आज की पहचान,
'नकल' कर वानर न पाता ताज, 
'कल' तभी जब पा सकें सम्मान। 
आजकल क्या हो रह मत देख,
खेल कुर्सी का रहे सब खेल, 
क्या किया किसने नहीं तू लेख,
बीतती जो मौन रहकर झेल। 
'कल' सके रख 'सलिल' उन्नत भाल। 
 'आज' कर श्रम; स्वप्न तब ही पाल।।  
२८.११.२०२३ 
***
माहिया
भारत को जानें हम
मातृ भूमि अपनी
गुण गा पहचानें हम।
*
पंजाब अनोखा है।
पाँच नदी; गिद्धा
भंगड़ा भी चोखा है।।
*
गुरु नानक की बानी
सुन अमरित चखिए
है यह शुभ कल्याणी।।
*
जिंदादिल पंजाबी
मुश्किल से लड़ते
किंचित न कभी डरते।।
***
पंजाब परिचय
*
हंसवाहिनी मातु कर, कृपा मिले वरदान।
बुद्धि ज्ञान मति कला ध्वनि, नाद ताल विज्ञान।
भारत के गुण गा सकूँ, मैया देना शक्ति।
हिंदी में कह-कर सकूँ, मैया भारत-भक्ति।।
भारत को जानें वही, जो ममता से युक्त।
पानी पी पंजाब का, करें भाँगड़ा मुक्त।।
गुरु नानक की वाणी अनुपम। वाहे गुरु फहराया परचम।।
'सत श्री काल' करें अभिवादन। बलिदानी हों फागुन-सावन।।
हरमंदिर साहिब अमृतसर। पंथ खालसा सबसे बढ़कर।
गुरु गोबिंदसिंह अजरामर। सिंह रणजीत वीर नर नाहर।।
वीणा पर ओंकार गूँजता। शिव-श्री; वास्तव जगत पूजता।।
कृषि; धनेश्वरी धारा घर घर। चंचल रेखा गिद्धा सस्वर।।
है अनुपम मिठास गन्ने में। तनिक न कम माहिये सुनने में।।
ले मन जीत गोगिआ कैनी। ईद गले मिल खा ले फैनी।।
बैसाखी पुष्पा बसंत है। सिक्खी-साखी दिग-दिगंत है।।
अंजलि में अनुराधा खुशियाँ। श्वास सुनीता ले गलबहियाँ।।
सतलज रावी व्यास जल, शक्ति न राज्य विपन्न।
झेलम और चिनाब तट, रहे सलिल संपन्न।।
२८.११.२०२१
***
मुक्तक
*
रात गई है छोड़कर यादों की बारात
रात साथ ले गई है साँसों के नग्मात
रात प्रसव पीड़ा से रह एकाकी मौन
रात न हो तो किस तरह कहिए आए प्रात
*
कोशिश पति को रात भर रात सुलाती थाम
श्रांत-क्लांत श्रम-शिशु को दे जी भर आराम
काट आँख ही आँख में रात उनींदी रात
सहे उपेक्षा मौन रह ऊषा ननदी वाम
२८-११-२०२०
*
एक व्यंग्य गीत
*
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
*
'विथ डिफ़रेंस' पार्टी अद्भुत, महबूबा से पेंग लड़ावै
बात न मन की हो पाए तो, पलक झपकते जेल पठावै
मनमाना किरदारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
*
कम जनमत पा येन-केन भी, लपक-लपक सरकार बनावै
'गो-आ' खेल आँख में धूला, झोंक-झोंककर वक्ष फुलावै
सत्ता पा फुँफकारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
*
मिले पटकनी तो रो-रोकर, नाहक नंगा नाच दिखावै
रातों रात शपथ लै छाती, फुला-फुला धरती थर्रावै
कैसऊ करो, जुगारै सब कछु
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
*
जोड़ी पूँजी लुटा-खर्चकर, धनपतियों को शीश चढ़ावै
रोजगार पर डाका डाले, भूखों को कानून पढ़ावै
अफरा पेट, डकारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
*
सरकारी जमीनसेठों को दै दै पार्टी फंड जुटावै
असफलता औरों पर थोपे, दिशाहीन हर कदम उठावै
गुंडा बन दुत्कारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
२८.११.२०१९
***
घनाक्षरी
*
नागनाथ साँपनाथ, जोड़ते मिले हों हाथ, मतदान का दिवस, फिर निकट है मानिए।
चुप रहे आज तक, अब न रहेंगे अब चुप, ई वी एम से जवाब, दें न बैर ठानिए।।
सारी गंदगी की जड़, दलवाद है 'सलिल', नोटा का बटन चुन, निज मत बताइए-
लोकतंत्र जनतंत्र, प्रजातंत्र गणतंत्र, कैदी न दलों का रहे, नव आजादी लाइए।।  
२८-११-२०१८
***
लघुकथा-
विकल्प
पहली बार मतदान का अवसर पाकर वह खुद को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था। एक प्रश्न परेशान कर रहा था कि किसके पक्ष में मतदान करे? दल की नीति को प्राथमिकता दे या उम्मीदवार के चरित्र को? उसने प्रमुख दलों का घोषणापत्र पढ़े, दूरदर्शन पर प्रवक्ताओं के वक्तव्य सुने, उम्मीदवीरों की शिक्षा, व्यवसाय, संपत्ति और कर-विवरण की जानकारी ली। उसकी जानकारी और निराशा लगातार बढ़ती गई।
सब दलों ने धन और बाहुबल को सच्चरित्रता और योग्यता पर वरीयता दी थी। अधिकांश उम्मीदवारों पर आपराधिक प्रकरण थे और असाधारण संपत्ति वृद्धि हुई थी। किसी उम्मीदवार का जीवनस्तर और जीवनशैली सामान्य मतदाता की तरह नहीं थी।
गहन मन-मंथन के बाद उसने तय कर लिया था कि देश को दिशाहीन उम्मीदवारों के चंगुल से बचाने और राजनैतिक अवसरवादी दलों के शिकंजे से मुक्त रखने का एक ही उपाय है। मात्रों से विमर्श किया तो उनके विचार एक जैसे मिले। उन सबने परिवर्तन के लिए चुन लिया 'नोटा' अर्थात 'कोई नहीं' का विकल्प।
२८-११-२०१८
***
दोहा सलिला
*
तज कर वाद-विवाद कर, आँसू का अनुवाद.
राग-विराग भुला "सलिल", सुख पा कर अनुराग.
.
भट का शौर्य न हारता, नागर धरता धीर.
हरि से हारे आपदा, बौनी होती पीर.
.
प्राची से आ अरुणिमा, देती है संदेश.
हो निरोग ले तूलिका, रच कुछ नया विशेष.
.
साँस पटरियों पर रही, जीवन-गाड़ी दौड़.
ईधन आस न कम पड़े, प्यास-प्रयास ने छोड़.
.
इसको भारी जिलहरी, भक्ति कर रहा नित्य.
उसे रुची है तिलहरी, लिखता सत्य अनित्य.
.
यह प्रशांत तर्रार वह, माया खेले मौन.
अजय रमेश रमा सहित, वर्ना पूछे कौन?
.
सत्या निष्ठा सिंह सदृश, भूली आत्म प्रताप.
स्वार्थ न वर सर्वार्थ तज, मिले आप से आप.
.
नेह नर्मदा में नहा, कलकल करें निनाद.
किलकिल करे नहीं लहर, रहे सदा आबाद.
२८.११.२०१७
.
मुक्तक
आइये मिलकर गले मुक्तक कहें
गले शिकवे गिले, हँस मुक्तक कहें
महाकाव्यों को न पढ़ते हैं युवा
युवा मन को पढ़ सके, मुक्तक कहें
*
बहुत सुन्दर प्रेरणा है
सत्य ही यह धारणा है
यदि न प्रेरित हो सका मन
तो मिली बहु तारणा है
*
कार्यशाला में न आये, वाह सर!
आये तो कुछ लिख न लाये, वाह सर!
आप ही लिखते रहें, पढ़ते रहें
कौन इसमें सर खपाए वाह सर!
*

जगाते रहते गुरूजी मगर सोना है
जागता है नहीं है जग यही रोना है
कह रहे हम पा सकें सब इसी जीवन में
जबकि हम यह जानते सब यहीं खोना है
२८.११.१०१६

***
मुक्तिका:
[इस रचना में हिंदी की राजस्थानी भंगिमा के उपयोग का प्रयास है. अनजानी त्रुटियों हेतु अग्रिम क्षमा प्रार्थना]
*
म्हारे आँगण चंदा उतरे, आस करूँ हूँ
नाचूँ-गाऊँ, हाथाँ माँ आकास भरूँ हूँ
.
म्हारी दोनों फूटें, थारी एक फोड़ दूँ
पड़यो अकाल पे पत्थर, सत्यानास करूँ हूँ
.
लाग्या छूट्या नहीं, प्रीत-रँग चढ़यो शीस पै
किसन नहीं हूँ, पर राधा सूँ रास करूँ हूँ
.
दिवलै काणी दीठ धरूँला, कपड़ छाणकर
अबकालै सब सुपना बेचूँ, हास करूँ हूँ
.
आमू-सामू बात करैलो रामू भैया!
सुपना हाली, सगली बाताँ खास करूँ हूँ
.
उणियारे रै बसणों चावूँ चित्त-च्यानणै
रचणों चावूँ म्है खुद नै परिहास करूँ हूँ
.
जूझल रै ताराँ नै तोड़र रात-रात भर
मुलकण खातर नाहक 'सलिल' प्रयास करूँ हूँ
***
मुक्तिका (राजस्थानी)
लोग
*
कोरा सुपणां बुणताँ लोग
क्यूँ बैठा सिर धुणतां लोग
.
गैर घराणी को तकतां
गेल बुरी ही चुणतां लोग।
.
ठकुरसुहाती भली लगै
बातां भली न सुणतां लोग
.
दोष छुपाया बग्लयाँ में
गेहूँ जैसा घुणतां लोग
.
कुण निर्दोष पखेरू रा
मारूँ-खाऊँ गुणतां लोग
***
मुक्तिका :
रूप की धूप
*
रूप की धूप बिखर जाए तो अच्छा होगा
रूप का रूप निखर आए तो अच्छा होगा
*
दिल में छाया है अँधेरा सा सिमट जाएगा
धूप का भूप प्रखर आए तो अच्छा होगा
*
मन हिरनिया की तरह खूब कुलाचें भरना
पीर की पीर निथर आए तो अच्छा होगा
*
आँख में झाँक मिले नैन से नैना जबसे
झुक उठे लड़ के मिले नैन तो अच्छा होगा
*
भरो अँजुरी में 'सलिल' रूप जो उसका देखो
बिको बिन मोल हो अनमोल तो अच्छा होगा
२८.११.२०१५
***
नवगीत:
गीत पुराने छायावादी
मरे नहीं
अब भी जीवित हैं.
तब अमूर्त
अब मूर्त हुई हैं
संकल्पना अल्पनाओं की
कोमल-रेशम सी रचना की
छुअन अनसजी वनिताओं सी
गेहूँ, आटा, रोटी है परिवर्तन यात्रा
लेकिन सच भी
संभावनाऐं शेष जीवन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
बिम्ब-प्रतीक
वसन बदले हैं
अलंकार भी बदल गए हैं.
लय, रस, भाव अभी भी जीवित
रचनाएँ हैं कविताओं सी
लज्जा, हया, शर्म की मात्रा
घटी भले ही
संभावनाऐं प्रणय-मिलन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
कहे कुंडली
गृह नौ के नौ
किन्तु दशाएँ वही नहीं हैं
इस पर उसकी दृष्टि जब पडी
मुदित मग्न कामना अनछुई
कौन कहे है कितनी पात्रा
याकि अपात्रा?
मर्यादाएँ शेष जीवन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
***

त्रिपदियाँ
प्राण फूँक निष्प्राण में, गुंजित करता नाद
जो- उससे करिये 'सलिल', आजीवन संवाद
सुख-दुःख जो वह दे गहें, हँस- न करें फ़रियाद।
*
शर्मा मत गलती हुई, कर सुधार फिर झूम
चल गिर उठ फिर पग बढ़ा, अपनी मंज़िल चूम
फल की आस किये बिना, काम करे हो धूम।
*
करी देश की तिजोरी, हमने अब तक साफ़
लें अब भूल सुधार तो, खुदा करेगा माफ़?
भष्टाचार न कर- रहें, साफ़ यही इन्साफ।
२८.११.२०१४
***

शनिवार, नवंबर 25, 2023

नवगीत, लघुकथा, संविधान, नाग, सरस्वती, दोहे, चित्रगुप्त,

नवगीत
*
जै जै बोलो
संविधान की
फिर बाँधो ठठरी
*
दीन-हीन जन के प्रतिनिधि बन मतदाता का चूसो खून।
मौज करो सरकारी धन पर
कहो पाँच होते दो दून।
स्वार्थों की मैदा
लालच का तेल
तलो मठरी
*
आदर्शों की कर नीलामी बेच-खरीदो खुल्लेआम।
नियम-कायदे तोड़-मरोड़ो बढ़ा-चढ़ाकर माँगो दाम।
मुँह काला हो
तो क्या चिंता
लाद मोह-गठरी
*
जनता मरती तो मरने दो, जाये भाड़ में देश।
बनो बेहया भाषण झाड़ो शर्म न करना लेश।
नीरो बनकर
बजा बाँसुरी
पुलिस चला लठरी
२६-११-२०१९
***
एक अलघुकथा
नैवेद्य
*
- प्रभु! मैं तुम सबका सेवक हूँ। तुम सब मेरे आराध्य हो। मुझे आलीशान महल दो। ऊँचा वेतन, निशुल्क भोजन, भत्ते, गाड़ी, मुफ्त इलाज का व्यवस्था कर दो ताकि तुम्हारी सेवा-पूजा कर सकूँ। बच्चे ने प्रार्थना की।
= प्रभु की पूजा तो उनको सुमिरन से होती है। इन सुविधाओं की क्या जरूरत है?
- जरूरत है, प्रभु त्रिलोक के स्वामी हैं। उन्हें छप्पन भोग अर्पण तभी कर सकूँगा जब यह सब होगा।
= प्रभु भोग नहीं भाव के भूखे होते हैं।
- फिर भाव अर्पित करनेवालों को अभाव में क्यों रखते हैं?
= वह तो उनकी करनी का फल है।
- इसीलिये तो, प्रभु से माँगना गलत कैसे हो सकता है? फिर जो माँगा उन्हीं के लिए
= लेकिन यह गलत है। ऐसा कोई नहीं करता ।
- क्यों नहीं करता? किसान का कर्जा उतारने के लिए एक दल से दूसरे दल में जाकर सरकार बनाने की जनसेवा हो सकती है तो प्रभु से माँगकर प्रभु की जन सेवा क्यों नहीं हो सकती?
मंदिर में दो बच्चों की वार्ता सुनकर स्तब्ध थे प्रभु लेकिन पुजारी प्रभु को दिखाकर ग्रहण कर रहा था नैवेद्य।
२६-११-२०१९
***
सामयिक नवगीत
*
नाग, साँप, बिच्छू भय ठाँड़े,
धर संतन खों भेस।
*
हात जोर रय, कान पकर रय,
वादे-दावे खूब।
बिजयी हो झट कै दें जुमला,
मरें नें चुल्लू डूब।।
की को चुनें, नें कौनउ काबिल,
कपटी, नकली भेस।
*
सींग मार रय, लात चला रय,
फुँफकारें बिसदंत।
डाकू तस्कर चोर बता रय,
खुद खें संत-महंत।
भारत मैया हाय! नोच रइ
इनैं हेर निज केस।
*
जे झूठे, बे लबरा पक्के,
बाकी लुच्चे-चोर।
आपन माँ बन रय रे मिट्ठू,
देख ठठा रय ढोर।
टी वी पे गरिया रय
भत्ते बढ़वा, सरम नें सेस।
२६-११-२०१८
***
विमर्श
नागाओं / नागों का रहस्य -2 : पुराण में नागाओं का उल्लेख
*
भारत के शासन-प्रशासन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले, निर्गुण ब्रम्ह चित्रगुप्त के उपासक कायस्थ अपने आदि पुरुष कि अवधारणा-कथा में उनके दो विवाह नाग कन्या तथा देव कन्या से तथा उनके १२ पुत्रों के विवाह बारह नाग कन्याओं से होना मानते हैं. कौन थे ये नाग? सर्प या मनुष्य? आर्य, द्रविड़ या गोंड़?
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ पुरातत्वविद डॉ. आर. के. शर्मा लिखित पुस्तक से नागों संबंधी जानकारी दे रही हैं माँ जीवन शैफाली.
*
नागों की उत्पत्ति का रहस्य अंधकार में डूबा है, इसलिए प्राचीन भारत के इतिहास की जटिल समस्याओं में से एक ये भी समस्या है. कुछ विद्वानों के अनुसार नाग मूलरूप से नाग की पूजा करनेवाले थे, इस कारण उनका संप्रदाय बाद में नाग के नाम से ही जाना जाने लगा. इसके समर्थन में जेम्स फर्ग्यूसन ने अपनी पुस्तक (Tree and Serpent Worship) में अक्सर उद्धृत करते हुए विचार व्यक्त किए हैं, और निःसंदेह काफी प्रभावित भी किया है, लेकिन आज के विद्वानों में उनका समर्थक मिलना मुश्किल होगा.
उनके अनुसार नाग, साँप की पूजा करनेवाली उत्तर अमेरिका में बसे तुरेनियन वंश की एक आदिवासी जाति थी जो युद्ध में आर्यों के अधीन हो गई. फर्ग्यूसन सकारात्मक रुप से ये घोषणा करते हैं कि ना आर्य साँप की पूजा करनेवाले थे, ना द्रविड़, और अपने इस सिद्धांत पर बने रहने के लिए वे ये भी दावा करते हैं कि नाग की पूजा का यदि कोई अंश वेद या आर्यों के प्रारंभिक लेखन में पाया भी गया है तो या तो वह बाद की तारीख का अंतर्वेशन होना चाहिए या आश्रित जातियों के अंधविश्वासों को मिली छूट. सर्प पूजा के स्थान पर जब बौद्ध धर्म आया, तो उसने उसे “आदिवासी जाति के छोटे मोटे अंधविश्वासों के थोड़े से पुनरुत्थारित रुप” से अधिक योग्य नहीं माना. वॉगेल ठीक ही कह गया है कि ‘ये सब अजीब और निराधार सिद्धांत हैं’.
कुछ विद्वानों का यह भी दावा है कि सर्प पूजा करने वालों की एक संगठित संप्रदाय के रुप में उत्पत्ति मध्य एशिया के सायथीयन के बीच से हुई है, जिन्होने इसे दुनियाभर में फैलाया. वे सर्प को राष्ट्रीय प्रतीक के रुप में उपयोग करने के आदि थे. इस संबंध में यह भी सुझाव दिया गया है कि भारत में आए प्रोटो-द्रविड़ियन (आद्य-द्रविड़), सायथियन जैसी ही भाषा बोलते थे जिसका आधुनिक शब्दावली में अर्थ होता था फ़िनलैंड मे बसने वाले कबीलों के परिवार की भाषा. (फिनो-अग्रिअन भाषाओं का परिवार).
यह अवलोकन 19वीं शताब्दी के द्रविड़ भाषओं के अधिकारी कॅल्डवेल के साथ शुरू हुआ और जिसे ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफेसर टी. बरौ का समर्थन मिला. वहीं दूसरी ओर एस. सी. रॉय एवं अन्य ने सुझाव दिया कि प्रोटो-द्रविड़ियन (आद्य-द्रविड़) भूमध्यसागर की जाति के आदिम प्रवासी थे जिनका भारत के सर्प संप्रदाय में योगदान रहा. इसलिए इस संप्रदाय की उत्पत्ति और प्रसार के सिद्धांतो में बहुत मतभेद मिलता है, जिनमें से कोई भी पूर्णरूपेण स्वीकार्य नहीं है, इसके अलावा नाग की पूजा मानव जगत में व्यापक रूप से प्रचलित थी.
सायथीयन का दावा दो कारणों से ठहर नहीं सकता, पहला नाग पूजा का जो सिद्धांत भारत लाया गया वह मात्र द्रविड़ और फिनो-अग्रिअन भाषाओं की सतही समानता पर आधारित है और मध्य एशिया के आक्रमण का कोई ऐतिहासिक उदाहरण नहीं मिलता. नवीनतम पुरातात्विक और आनुवंशिक निष्कर्ष ने यह सिद्ध कर दिया है कि दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. का आर्य आक्रमण/प्रवास सिद्धांत एक मिथक है. दूसरा, मध्य एशिया में सामान्य सर्प संप्रदाय का इस बात के अलावा कोई अंश नहीं मिलता कि वे साँपों का गहने या प्रतीक के रुप में उपयोग करते थे.
नाग सामान्य महत्व से अधिक शक्तिशाली और व्यापक लोग थे, जो आदिम समय से भारत के विभिन्न भागों में आजीविका चलाते दिखाई देते थे. संस्कृत में नाग नाम से बुलाये जाने से पहले वे किस नाम से जाने जाते थे ये ज्ञात नहीं है. द्रविड़ भाषा में नाग का अर्थ ‘पंबु’ या ‘पावु’ होता है. कदाचित ‘पावा’ नाम उत्तरी भारत के शहरों में से किसी एक से लिया गया था जो मल्ल की राजधानी हुआ करती थी और बुद्ध के समय में यहाँ निवास करनेवालों ने कबीले के पुराने नाम ‘नाग’ को बनाए रखा था. यह भी संभव है कि जैसे ‘मीना’ का नाम ‘मत्स्य’ में परिवर्तित हुआ, ‘कुदगा’ का ‘वानर’ में उसी तरह बाद में आर्यों द्वारा,’पावा’ (जिसका अर्थ है नाग) का नाम ‘नाग’ में परिवर्तित किया गया और संस्कृतज्ञ द्वारा समय के साथ साँप पालने वाले को नाग कहा जाने लगा.
हड़प्पा में खुदाई से मिले कुछ अवशेष अधिक रुचिकर है क्योंकि यह समकालीन लोगों के धार्मिक जीवन में सर्प के महत्व को अधिक से अधिक उजागर करते हैं. उनमें से एक छोटी सुसज्जित मेज है (faience tablet) है जिस पर एक देव प्रतिमा के दोनों ओर घुटने टेककर आदमी द्वारा पूजा की जा रही है. प्रत्येक उपासक के पीछॆ एक कोबरा अपना सिर उठाए और फन फैले दिखाई देता है जो प्रत्यक्ष रुप से यह दर्शाता है कि वह भी प्रभु की आराधना में साथ दे रहा है. इसके अलावा चित्रित मिट्टी के बर्तन भी पाए गए जिनमें से कुछ पर सरीसृप चित्रित थे, नक्काशी किया हुआ साँप का चित्र, मिट्टी का ताबीज जिस पर एक सरीसृप के सामने एक छोटी मेज पर दूध जैसी कोई भेंट दिखाई देती है.
हड़प्पा में भी एक ताबीज पाया गया जिस पर एक गरुड़ के दोनों ओर दो नागों को रक्षा में खड़े हुए चित्रित किया गया है. ऊपर दी गई खोज सिंधु घाटी के लोगों की पूजा में साँप के होने के तथ्य को इंगित करती है, केनी के अनुसार आवश्यक रुप से ख़ुद पूजा की वस्तु के रुप में ना सही, और उस क्षेत्र में नाग टोटेम वाले लोग होना चाहिए.
महाभारत में दिए वर्णन के अनुसार नाग जो कि कश्यप और कद्रु की संतान है, रमणियका की भूमि जो समुद्र के पार थी, पर बहुत गर्मी, तूफान और बारिश का सामना करने के बाद पहुँचे थे, ऐसा माना जाता है कि नाग मिस्र द्वारा खोजे गए देश की ओर चले गए थे. ये कहा जाता है कि वे गरुड़ प्रमुख के नेतृत्व में आगे बढ़े थे. चाहे यह सिद्धांत स्वीकार्य हो या ना हो यह जानना रुचिकर है कि मिस्र के फरौह (pharaohs of egypt -प्राचीन मिस्त्र के राजाओं की जाति या धर्म या वर्ग संबंधी नाम) कुछ हद तक बाज़ या गरुड़ और सर्प से संबंधित थे.
नाग आर्य थे या गैर-आर्य, इस प्रश्न के उत्तर में बहुत कुछ लिखा गया और अधिकतर विद्वानों का यही मानना है कि आर्यों के भारत में आने से पहले नाग द्रविड़ थे जो भारत के उत्तरी क्षेत्र में रहते थे. आर्यन आव्रजन सिद्धांत के विवाद में प्रवेश के बिना, जो नवीनतम शोधकर्ता द्वारा मिथक साबित हुई है यह इंगित किया जा सकता है कि नाग सिर्फ साँप जो कि उनका टोटेम था ना कि पूजा के लिए आवश्यक वस्तु, की पूजा की वजह से गैर-आर्य लोग नहीं थे. वे गैर-आर्य कबीले के थे चाहे वे साँप की पूजा करते थे या नहीं. कबीले के टोटेम के रुप में सर्प और पूजा की एक वस्तु के रुप में सर्प, ये दो अलग कारक है. पहले कारक को स्वीकार करने के लिए दूसरे को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है. प्राचीन भारत के संपूर्ण इतिहास में यह पर्याप्त रुप से सिद्ध कर दिया गया है कि नाग के टोटेम को अपनाने वाले सत्तारूढ़ कबीले/राजवंश नाग की पूजा करनेवाले और गैर-आर्य हो ये आवश्यक नहीं है.
प्राचीन भारत के दौरान, उत्तरी भारत का सबसे अधिक भाग नागों द्वारा बसा हुआ था. ऋग्वेद में व्रित्र और तुग्र के लिए स्थान है. महाभारत कई नाग राजाओं के शोषण के विवरण से भरा है . महान महाकाव्य इन्द्रप्रस्थ या पुरानी दिल्ली के पास जमुना की घाटी में महान खांडव जंगल में रहने वाले राजा तक्षक के तहत नाग के ऐतिहासिक उत्पीड़न के साथ खुलता है.
वास्तव में नाग कबीले या जनजाति के कई बहुत शक्तिशाली राजा थे जिनमें सबसे अधिक ज्ञात थे शेषनाग या अनंत, वासुकि, तक्षक, कर्कोतक, कश्यप, ऐरावत, कोरावा और धृतराष्ट्र, जो सब कद्रु में पैदा हुए थे. धृतराष्ट्र जो सभी नागों के अग्रणी थे उनके अकेले के अपने अनुयायियों के रूप में अट्ठाईस नाग थे. उत्तर भारत में नाग के अस्तित्व को साबित करने के लिए जातक (jatakas) में भी उल्लेखों की कमी नहीं है.
इक्ष्वाकु (iksvauku) वंश के महान राजा पाटलिपुत्र के प्राचीन नाग थे. भारत राजाओं को भी सर्प जाति में सम्मिलित किया गया था. महान राजा ययति, समान रुप से महान राजा पुरु के पिता, नहुसा नाग के पुत्र और अस्तक के नाना थे. पाँच पाँडव भाई भी नाग आर्यक या अर्क के पोते के पोते थे. फिर इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अर्जुन ने नाग राजकुमारी युलूपि से विवाह किया.
यादव भी नाग थे. ना केवल कुंती बल्कि पाँच वीर पाँडव की माता और कृष्ण की चाची, कृष्ण तो नाग प्रमुख आर्यक जो कि वासुदेव के महान दादा और यादव राजा के पितृ थे, के सीधे वंशज थे. बल्कि उनके बड़े भाई बलदेव के सिर को विशाल साँपों से ढँका हुआ प्रस्तुत किया गया है, जिसे वास्तव में छत्र कहा जाता था, जो महान राजाओं की पहचान में भेद के लिए होता था. बलदेव को शेषनाग का अंश कहा जाता है, जिसका अर्थ है या तो वह महान शेषनाग का कोई संबंधी है या उनके जितना शक्तिशाली. चूंकि यादव कुल के इन दो सूरमाओं के मामा कंस, मगध के जरसंधा राजा बर्हद्रथ के दामाद थे, हम देखते हैं कि मगध के प्राचीन राज्यवंश में भी नाग शासक के रुप में थे, जिन्हें बर्हद्रथ कहा गया.
पुराण के अनुसार मगध के बर्हद्रथ प्रद्योत द्वारा जीत लिए गए, जो बदले में शिशुनाग के अनुयायी हुए. कई लेखकों ने ठीक ही कहा है, कि शिशुनाग में मगध के पास एक नाग राजवंश उस पर शासन करने के लिए था. शिशुनाग शब्द अपने आप में ही बहुत महत्वपूर्ण है. बर्हद्रथ राजवंश जो कि एक नाग राजवंश था, के पतन के बाद एक अन्य राजवंश सत्तारूढ़ हुआ, जिसे प्रद्योत राजवंश कहा गया. परंतु यह राजवंश जो कि अपने पूर्ववर्ति नाग राजवंश से बिल्कुल भिन्न था, शिशुनाग राजवंश जैसे कि उसके नाम से ही पता चलता है कि एक नाग राजवंश है, द्वारा फिर से पराजित हुई. अर्थात प्रद्योत के एक छोटे से अंतराल के बाद नाग एक बार फिर सत्ता में आया. यह शिशुनाग बर्हद्रथ राजवंश के प्राचीन नागों के ही अनुयायी थे. प्राचीन सीनियर नाग बर्हद्रथ के अनुयायी होने के कारण सत्ता में आने के बाद एक बार फिर वे शिशुनाग या जूनियर नाग के रूप में पहचाने जाने लगे. नागओ द्वारा रक्षित बौद्ध परंपरा जो कि शिशुनाग की संस्थापक बल्कि पुंर्स्थापक थी, ने शिशुनाग की उत्पत्ति के बारे में यही सिद्ध किया है कि वह नाग थे.

यहाँ तक कि चंद्रगुप्त मौर्य भी नाग वंश के अंतर्गत माने जाते हैं. सिंधु घाटी को पार करने के बाद सिकंदर I (Alexander I) जिन लोगों के संपर्क में आया वे भी नाग थे.
***
सरस्वती वंदना
सकल सुरासुर सामिनी, सुन माता सरसत्ति।
विनय करीन इ वीनवुं, मुझ तउ अविरल मत्ति।।
(संवत १६७७ में रचित ढोल-मारू दा दूहा से अपभृंश दोहा)
*
सुरसुरों की स्वामिनी, हे सरस्वती मात।
विनय करूँ सर नवा; दो, निर्मल मति सौगात।।
२६.११.२०१८
संदर्भ: दोहा-दोहा नर्मदा
***
अलंकार सलिला: ३२
तुल्ययोगिता अलंकार
तुल्ययोगिता में क्रिया, या गुण मिले समान
*
*
जब उपमेयुपमान में, क्रिया साम्य हो मित्र.
तुल्ययोगिता का वहाँ, अंकित हो तब चित्र.
तुल्ययोगिता में क्रिया, या गुण मिले समान.
एक धर्म के हों 'सलिल', उपमेयो- उपमान..
जिन अलंकारों में क्रिया की समानता का चमत्कारपूर्ण वर्णन होता है, वे क्रिया साम्यमूलक अलंकार कहे जाते हैं।
ये पदार्थगत या गम्यौपम्याश्रित अलंकार भी कहे जाते हैं. इस वर्ग का प्रमुख अलंकार तुल्ययोगिता अलंकार है।
जहाँ प्रस्तुतों और अप्रस्तुतों या उपमेयों और उपमानों में गुण या क्रिया के आधार पर एक धर्मत्व की स्थापना
की जाए वहाँ तुल्ययोगिता अलंकार होता है।
जब अनेक प्रस्तुतों या अनेक अप्रस्तुतों को एक ही (सामान्य / कॉमन) धर्म से अन्वित किया जाए तो वहाँ तुल्य
योगिता अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. गुरु रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भये पुनि-पुनि पुलकाहीं।।
यहाँ विश्वामित्र जी, राम जी, और मुनियों इस सभी प्रस्तुतों का एक समान धर्म मुदित और पुलकित होना है।
२. सब कर संसय अरु अज्ञानू । मंद महीपन्ह कर अभिमानू।।
भृगुपति केरि गरब-गरुआई। सुर-मुनिबरन्ह केरि कदराई।।
सिय कर सोच जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुःख-दावा।।
संभु-चाप बड़ बोहित पाई। चढ़े जाइ सब संग बनाई।।
यहाँ अनेक अप्रस्तुतों (राजाओं, परशुराम, देवतनों, मुनियों, सीता, जनक, रानियों) का एक समान धर्म शिव धनुष रूपी
जहाज पर चढ़ना है। राम ने शिव धनुष भंग किया तो सब यात्री अर्थात भय के कारण (सबका संशय और अज्ञान,
दुष्ट राजाओं का अहंकार, परशुराम का अहं, देवों व मुनियों का डर, सीता की चिंता, जनक का पश्चाताप, रानियों
की दुखाग्नि) नष्ट हो गये।
३. चन्दन, चंद, कपूर नव, सित अम्भोज तुषार।
तेरे यश के सामने, लागें मलिन अपार।।
यहाँ चन्दन, चन्द्रमा, कपूर तथा श्वेत कमल व तुषार इन अप्रस्तुतों (उपमानों) का एक ही धर्म 'मलिन लगना' है।
४. विलोक तेरी नव रूप-माधुरी, नहीं किसी को लगती लुभावनी।
मयंक-आभा, अरविंद मालिका, हंसावली, हास-प्ररोचना उषा।।
यहाँ कई अप्रस्तुतों का एक ही धर्म 'लुभवना न लगना' है।
५. कलिंदजा के सुप्रवाह की छटा, विहंग-क्रीड़ा, कलनाद माधुरी।
नहीं बनाती उनको विमुग्ध थीं, अनूपता कुञ्ज-लता-वितान की।।
६. सरोवरों की सुषमा, सुकंजता सुमेरु की, निर्झर की सुरम्यता।
न थी यथातथ्य उन्हें विमोहती, अनंत-सौंदर्यमयी वनस्थली।।
७. नाग, साँप, बिच्छू खड़े, जिसे करें मतदान।
वह कुर्सी पा दंश दे, लूटे कर अभिमान।।
तुल्ययोगिता अलंकार के चार प्रमुख प्रकार हैं-
अ. प्रस्तुतों या उपमेयों की एकधर्मता:
१. मुख-शशि निरखि चकोर अरु, तनु पानिप लखु मीन।
पद-पंकज देखत भ्रमर, होत नयन रस-लीन।।
२. रस पी कै सरोजन ऊपर बैठि दुरेफ़ रचैं बहु सौंरन कों।
निज काम की सिद्धि बिचारि बटोही चलै उठि कै चहुं ओरन को।।
सब होत सुखी रघुनाथ कहै जग बीच जहाँ तक जोरन को।
यक सूर उदै के भए दुःख होत चोरन और चकोरन को।।
आ. अप्रस्तुतों या उपमानों में एकधर्मता:
१. जी के चंचल चोर सुनि, पीके मीठे बैन।
फीके शुक-पिक वचन ये, जी के लागत हैं न।।
२. बलि गई लाल चलि हूजिये निहाल आई हौं लेवाइ कै यतन बहुबंक सों।
बनि आवत देखत ही बानक विशाल बाल जाइ न सराही नेक मेरी मति रंक सों।।
अपने करन करतार गुणभरी कहैं रघुनाथ करी ऐसी दूषण के संक सों।
जाकी मुख सुषमा की उपमा से न्यारे भए जड़ता सो कमल कलानिध कलंक सों।।
इ. गुणों की उत्कृष्टता में प्रस्तुत की एकधर्मिता:
१. शिवि दधीचि के सम सुयस इसी भूर्ज तरु ने लिया।
जड़ भी हो कर के अहो त्वचा दान इसने दिया।।
यहाँ भूर्ज तरु को शिवि तथा दधीचि जैसे महान व्यक्तियों के समान उत्कृष्ट गुणोंवाला बताया गया है।
ई. हितू और अहितू दोनों के साथ व्यवहार में एकधर्मता:
१. राम भाव अभिषेक समै जैसा रहा,
वन जाते भी समय सौम्य वैसा रहा।
वर्षा हो या ग्रीष्म सिन्धु रहता वही,
मर्यादा की सदा साक्षिणी है मही।।
२. कोऊ काटो क्रोध करि, कै सींचो करि नेह।
बढ़त वृक्ष बबूल को, तऊ दुहुन की देह।।
२६.११.२०१५
***

गीत :
*
आत्म मोह से
रहे ग्रस्त जो
उनकी कलम उगलती विष है
करें अनर्थ
अर्थ का पल-पल
पर निन्दाकर
हँस सोते हैं
*
खुद को
कहते रहे मसीहा
औरों का
अवदान न मानें
जिसने गले लगाया उस पर
कीच डालने का हठ ठानें
खुद को नहीं
तोलते हैं जो
हल्कापन ही
जिनकी फितरत
खोल न पाते
मन की गाँठें
जो पाया आदर खोते हैं
*
मनमानी
व्याख्याएँ करते
लिखें उद्धरण
नकली-झूठे
पढ़ पाठक, सच समझ
नहीं क्यों
ऐसे लेखक ऊपर थूके?
सबसे अधिक
बोलते हैं वे
फिर भी शिकवा
बोल न पाए
ऐसे वक्ता
अपनी गरिमा खो
जब भी मिलते रोते हैं
***
गीत :
चढ़ा, बैठ फिर उतर रहा है
ये पहचाना,
वो अनजाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*
साँसों का कर सफर मौन रह
औरों की सुन फिर अपनी कह
हाथ आस का छोड़ नहीं, गह
मत बन गैरों का दीवाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*
जो न काम का उसे बाँट दे
कोई रोके डपट-डाँट दे
कंटक पथ से बीन-छाँट दे
बन मधुकर कुछ गीत सुनाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*
कौन न माँगे? सब फकीर हैं
केवल वे ही कुछ अमीर हैं
जिनके मन रमते कबीर हैं
ज्यों की त्यों चादर धर जाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*
गैर आज, कल वही सगा है
रिश्ता वह जो नेह पगा है
साये से ही पायी दगा है
नाता मन से 'सलिल' निभाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
२६.११.२०१५
***
नवगीत :
नीले-नीले कैनवास पर
बादल-कलम पकड़ कर कोई
आकृति अगिन बना देता है
मोह रही मन द्युति की चमकन
डरा रहा मेघों का गर्जन
सांय-सांय-सन पवन प्रवाहित
जल बूँदों का मोहक नर्तन
लहर-लहर लहराता कोई
धूसर-धूसर कैनवास पर
प्रवहित भँवर बना देता है
अमल विमल निर्मल तुहिना कण
हरित-भरित नन्हे दूर्वा तृण
खिल-खिल हँसते सुमन सुवासित
मधुकर का मादक प्रिय गुंजन
अनहद नाद सुनाता कोई
ढाई आखर कैनवास पर
मन्नत कफ़न बना देता है
***
दोहे
राम आत्म परमात्म भी, राम अनादि-अनंत
चित्र गुप्त है राम का, राम सृष्टि के कंत
विधि-हरि-हर श्री राम हैं, राम अनाहद नाद
शब्दाक्षर लय-ताल हैं, राम भाव रस स्वाद
राम नाम गुणगान से, मन होता है शांत
राम-दास बन जा 'सलिल', माया करे न भ्रांत
***
मुक्तक:
मेरी तो अनुभूति यही है शब्द ब्रम्ह लिखवा लेता
निराकार साकार प्रेरणा बनकर कुछ कहला लेता
मात्र उपकरण मानव भ्रमवश खुद को रचनाकार कहे
दावानल में जैसे पत्ता खुद को करता मान दहे
***
काव्यांजलि
सलिल-धार लहरों में बिम्बित 'हर नर्मदे' ध्वनित राकेश
शीश झुकाते शब्द्ब्रम्ह आराधक सादर कह गीतेश
जहाँ रहें घन श्याम वहाँ रसवर्षण होता सदा अनूप
कमल कुसुम सज शब्द-शीश गुंजित करता है प्रणव अरूप
गौतम-राम अहिंसा-हिंसा भव में भरते आप महेश
मानोशी शार्दुला नीरजा किरण दीप्ति चारुत्व अशेष
ममता समता श्री प्रकाश पा मुदित सुरेन्द्र हुए अमिताभ
प्रतिभा को कर नमन हुई है कविता कविता अब अजिताभ
सीता राम सदा करते संतोष मंजु महिमा अद्भुत
व्योम पूर्णिमा शशि लेखे अनुराग सहित होकर विस्मित
ललित खलिश हृद पीर माधुरी राहुल मन परितृप्त करे
कान्त-कामिनी काव्य भामिनि भव-बाधा को सुप्त करे
२६.११.२०१४
***

लेख :
:चित्रगुप्त रहस्य:
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्ण देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है:
''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं. आत्मा क्या है? सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके लिए पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के लिए नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं
सभी जानते हैं कि आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आराम तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। इसी का पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
*
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण हैं
चित्रगुप्त निराकार ही नहीं निर्गुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिए वे साकार-सगुण रूप में प्रगट होते हैं। आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
*
परमब्रम्ह के अंश कर, कर्म भोग परिणाम
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं हो था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिए मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वन हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह कहने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं। चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं। सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है।मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं।
सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य:
आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में परतो पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना। यम द्वितीय पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिए 'ॐ' को श्रृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिए उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेव वाद की परंपरा
इसके नीचे कुछ श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठाई जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु के साकार होकर सृष्टि के कल्याण के लिए विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है। सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये।
पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य
निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में
अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम की पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियां अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन व्यवसायिक कार्य न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है।
उदारता तथा समरसता की विरासत
यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वतीसभी का पूजन किया जाता है। आर्य समाज, साईं बाबा, युग निर्माण योजना आदि हर रचनात्मक मंच पर कायस्थ योगदान करते मिलते हैं।
२८.१२.२०११
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शुक्रवार, नवंबर 24, 2023

सॉनेट, वकील, संजय, मुक्तिका, रेलगाड़ी, दोहा, नवगीत, लघुकथा, शिशु गीत

सॉनेट
संजय
अजय रहे यह चाह नहीं है,
हिंसा पंथ नहीं अपनाता,
कर संतोष सदा सुख पाता,
विजय वरे वह राह नहीं है।
तनिक हृदय में डाह नहीं है,
पाता जो दायित्व निभाता,
कृष्ण-सखा होना मन भाता,
मिलकर मिलती वाह नहीं है।
अपना मस्तक ऊँचा रखता,
निर्मलता उसका आभूषण,
पाता-देता नहीं पराजय।
सत्य कहे अप्रिय बिन कटुता,
आत्म आचरण निरख परखता,
नहीं धनंजय से कम संजय।
२४.११.२०२३
***

सॉनेट 
अधिवक्ता 
• 
अधिवक्ता वक्ता हो उनका जो सच्चे हैं, 
पीड़ित-निर्बल की लाठी बन न्याय दिलाए, 
नहीं सबल अन्यायी का चाकर हो जाए, 
न ही बचाए उसको जो अन्यायी लुच्चा। 
रखे मनोबल सुदृढ़, न हो वह मन का कच्चा, 
और न केवल धन अर्जन ही लक्ष्य बनाए, 
न्यायालय को विधि-मंदिर का सुयश दिलाए, 
डरे दंड से हर अपराधी नंगा टुच्चा। 
करो वकालत पर जमीर नीलाम न करना, 
मरना बेहतर अपराधी के संरक्षण से, 
काला कोट न मातम-वाहक नहीं रुदाली, 
नव आशा पर्याय सदा अभिभाषक बनना, 
प्रतिभाओं का हनन नहीं हो आरक्षण से, 
लिए एडवोकेट धरा पर नित खुशहाली। 
२४.११.२०२३ 
•••
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान - समन्वय प्रकाशन 
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष: ९४२५१ ८३२४४ ​/ ७९९९५ ५९६१८ ​
salil.sanjiv@gmail.com
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​इकाई स्थापना आमंत्रण
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विश्ववाणी हिंदी संस्थान एक स्वैच्छिक अपंजीकृत समूह है जो ​भारतीय संस्कृति और साहित्य के प्रचार-प्रसार तथा विकास हेतु समर्पित है। संस्था पीढ़ियों के अंतर को पाटने और नई पीढ़ी को साहित्यिक-सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने के लिए निस्वार्थ सेवाभावी रचनात्मक प्रवृत्ति संपन्न महानुभावों तथा संसाधनों को एकत्र कर विविध कार्यक्रम न लाभ न हानि के आधार पर संचालित करती है। इकाई स्थापना, पुस्तक प्रकाशन, लेखन कला सीखने, भूमिका-समीक्षा लिखवाने, विमोचन-लोकार्पण-संगोष्ठी-परिचर्चा अथवा स्व पुस्तकालय स्थापित करने हेतु संपर्क करें: salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४ ​/ ७९९९५ ५९६१८।
काव्य संकलन - चंद्र विजय अभियान
हिंदी के साहित्येतिहास में पहली बार किसी वैज्ञानिक परियोजना को केंद्र में रखकर साझा काव्य संकलन प्रकाशित कर कीर्तिमान बनाया जा रहा है। इसरो के चंद्र विजय अभियान को सफल बनानेवाले वैज्ञानिकों, अभियंताओं व तकनीशियनों की कलमकारों की ओर से मानवंदना करते हुए काव्यांजलि अर्पित करने के लिए तैयार किए जा रहे काव्य संग्रह "चंद्र विजय अभियान" में सहभागिता हेतु आप आमंत्रित हैं। आप अपनी आंचलिक बोली, प्रादेशिक भाषा, राष्ट्र भाषा या विदेशी भाषा में लगभग २० पंक्तियों की रचना  भेजें।  संकलन में अब तक १४५ सहभागी सम्मिलित हो चुके हैं। संकलन में देश-विदेश की भाषाओं/बोलिओं की रचनाओं का स्वागत है। संकलन में ९४ वर्ष से लेकर २२ वर्ष तक की आयु के ३ पीढ़ियों के रचनाकार सम्मिलित हैं। 

अंगिका, अंग्रेजी, असमी, उर्दू, कन्नौजी, कुमायूनी, गढ़वाली, गुजराती, छत्तीसगढ़ी,  निमाड़ी, पचेली, पाली, प्राकृत, बघेली, बांग्ला, बुंदेली, ब्रज, भुआणी, भोजपुरी,  मराठी,  मारवाड़ी, मालवी, मैथिली, राजस्थानी, संबलपुरी, संथाली, संस्कृत, हलबी, हिंदी आदि ३० भाषाओं/बोलिओं की रचनाएँ आ चुकी हैं। आस्ट्रेलिया, अमेरिका तथा इंग्लैंड से रचनाकार जुड़ चुके हैं। 

पहली बार विविध भाषाओं/बोलियों में वैज्ञानिकों/अभियंताओं को काव्यांजलि देकर कीर्तिमान बनाया जा रहा है।

पहली बार देश-विदेश की सर्वाधिक २८ भाषाओं/बोलियों के कवियों का संगम कीर्तिमान बना रहा है।

पहली बार शताधिक कवि एक वैज्ञानिक परियोजना पर कविता रच रहे हैं। 

पहली बार २२ वर्ष से लेकर ९४ वर्ष तक के तीन पीढ़ी के रचनाकार एक ही संकलन में सहभागिता कर रहे हैं।  

हर सहभागी को इन कीर्तिमानों में आपकी सहभागिता संबंधी प्रमाणपत्र संस्थान अध्यक्ष के हस्ताक्षरों से ओन लाइन भेजा जाएगा।   

आप सम्मिलित होकर इस पुनीत सारस्वत अनुष्ठान में अपनी साहित्यिक समिधा समर्पित कर इसे अधिक से अधिक विविधता से समृद्ध करें। अपनी रचना, चित्र, परिचय (जन्म तिथि-माह-वर्ष-स्थान, माता-पिता-जीवनसाथी, शिक्षा, संप्रति, प्रकाशित पुस्तकें, डाक पता, ईमेल, चलभाष/वाट्स एप) तथा सहभागिता निधि ३००/- प्रति पृष्ठ वाट्स ऐप क्रमांक ९४२५१८३२४४ पर भेजें। ६००/- मूल्य की पुस्तक की अतिरिक्त प्रति सहभागियों को अग्रिम राशि भेजने पर ४००/- प्रति (पैकिंग व डाक व्यय निशुल्क) की दर से उपलब्ध होगी। प्रकाशन के पश्चात प्रकाशक से निर्धारित मूल्य पर लेनी होगी।    
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सामयिक लघुकथाएँ
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में 'सार्थक लघुकथाएँ' शीर्षक से सहयोगाधार पर इच्छुक लघुकथाकारों की २-२ प्रतिनिधि लघुकथाएँ, चित्र, संक्षिप्त परिचय (जन्मतिथि-स्थान, माता-पिता, जीवन साथी, साहित्यिक गुरु व प्रकाशित पुस्तकों के नाम, शिक्षा, लेखन विधाएँ, अभिरुचि/आजीविका, डाक का पता, ईमेल, चलभाष क्रमांक) आदि २ पृष्ठों पर प्रकाशित होंगी। लघुकथा पर शोधपरक सामग्री भी होगी। पेपरबैक संकलन की २-२ प्रतियाँ पंजीकृत पुस्त-प्रेष्य की जाएँगी। यथोचित संपादन हेतु सहमत सहभागी मात्र ३००/- सहभागिता निधि पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com पर ईमेल करें। संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' हैं। संपर्क हेतु ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com, roy.kanta@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४ । अतिरिक्त प्रतियाँ मुद्रित मूल्य से ४०% रियायत पर पैकिंग-डाक व्यय निशुल्क सहित मिलेंगी।
प्रतिनिधि नवगीत
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में 'प्रतिनिधि नवगीत'' शीर्षक से प्रकाशनाधीन संकलन हेतु इच्छुक नवगीतकारों से एक पृष्ठीय ८ नवगीत, चित्र, संक्षिप्त परिचय (जन्मतिथि-स्थान, माता-पिता, जीवन साथी, साहित्यिक गुरु व प्रकाशित पुस्तकों के नाम, शिक्षा, लेखन विधाएँ, अभिरुचि/आजीविका, डाक का पता, ईमेल, चलभाष क्रमांक) सहभागिता निधि ३०००/- सहित आमंत्रित है। यथोचित सम्पादन हेतु सहमत सहभागी ३०००/- सहभागिता निधि पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com को ईमेल करें। । प्रत्येक सहभागी को १५ प्रतियाँ निशुल्क उपलब्ध कराई जाएँगी जिनका विक्रय या अन्य उपयोग करने हेतु वे स्वतंत्र होंगे। ग्रन्थ में नवगीत विषयक शोधपरक उपयोगी सूचनाएँ और सामग्री संकलित की जाएगी। हिंदीतर भारतीय भाषाओँ के नवगीत हिंदी अनुवाद सहित भेजें।
शांति-राज स्व-पुस्तकालय योजना
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में नई पीढ़ी के मन में हिंदी के प्रति प्रेम तथा भारतीय संस्कारों के प्रति लगाव तभी हो सकता है जब वे बचपन से सत्साहित्य पढ़ें। इस उद्देश्य से पारिवारिक पुस्तकालय योजना आरम्भ की जा रही है। इस योजना के अंतर्गत ५००/- भेजने पर निम्न में से ७००/- की पुस्तकें तथा शब्द साधना पत्रिका व् दिव्य नर्मदा पत्रिका के उपलब्ध अंक पैकिंग व डाक व्यय निशुल्क की सुविधा सहित उपलब्ध हैं। राशि अग्रिम पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com को ईमेल करें। इस योजना में पुस्तक सम्मिलित करने हेतु salil.sanjiv@gmail.com या ७९९९५५९६१८/९४२५१८३२४४ पर संपर्क करें।
पुस्तक सूची
०१. मीत मेरे कविताएँ -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' १५०/-
०२. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत संग्रह -आचार्य संजीव 'सलिल' १५०/-
०३. कुरुक्षेत्र गाथा खंड काव्य -स्व. डी.पी.खरे -आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
०४. पहला कदम काव्य संग्रह -डॉ. अनूप निगम १००/-
०५. कदाचित काव्य संग्रह -स्व. सुभाष पांडे १२०/-
०६. Off And On -English Gazals -Dr. Anil Jain ८०/-
०७. यदा-कदा -उक्त का हिंदी काव्यानुवाद- डॉ. बाबू जोसफ-स्टीव विंसेंट ८०/-
०८. Contemporary Hindi Poetry - B.P. Mishra 'Niyaz' ३००/-
०९. महामात्य महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' ३५०/-
१०. कालजयी महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' २२५/-
११. सूतपुत्र महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' १२५/-
१२. अंतर संवाद कहानियाँ -रजनी सक्सेना २००/-
१३. दोहा-दोहा नर्मदा दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१४. दोहा सलिला निर्मला दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१५. दोहा दिव्य दिनेश दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा ३००/-
१६. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
१७. The Second Thought - English Poetry - Dr .Anil Jain​ १५०/-
१८. हस्तिनापुर की बिथा कथा (बुंदेली संक्षिप्त महाभारत)- डॉ. एम. एल. खरे २५०/-
१९. शब्द वर्तमान नवगीत संग्रह - जयप्रकाश श्रीवास्तव १२०/-
२०. बुधिया लेता टोह - बसंत कुमार शर्मा - १८०/-
२१. पोखर ठोंके दावा नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार १८०/-
२२. मौसम अंगार है नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार १६०/-
२३. कोयल करे मुनादी नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार २००/-
२४. अंधी पीसे कुत्ते खाँय व्यंग्य काव्य संग्रह - अविनाश ब्योहार १००/-
२५. काव्य मंदाकिनी काव्य संग्रह - ३२५/-
२६. हिंदी सॉनेट सलिला - सं. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ५००/- 
२७. ओ मेरी तुम - गीत-नवगीत - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३००/- 
२८. आदमी अभी जिंदा है  - लघु कथा संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३७०/- 
२९. २१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - १५०/- 
३०. २१ श्रेष्ठ लोक कथाएँ मध्य प्रदेश - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - १५०/- 
३१   काव्य कालिंदी - डॉ. संतोष शुक्ला - २५०/- 
३२. खुशियों की सौगात - डॉ. संतोष शुक्ला - २५०/- 
३३. छंद सोरठा खास - डॉ. संतोष शुक्ला 'प्रज्ञा' - ३००/-
३४. जीतने जी जिद, - काव्य संग्रह - सरला वर्मा - १२५/- 
३५. व्यक्ति रेखा - डॉ. जयश्री जोशी - संस्मरण - १५०/- 
३६. सौरभ: - संस्कृत -हिंदी काव्यानुवाद - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - १५०/-
३७. मता-ए-परवीन - गजल संग्रह -  परवीन हक - २००/- 
३८. सूर्य मंजरी - काव्य संग्रह - सुनीता सिंह - ३००/- 
३९. भूकंप के साथ जीना सीखें - लोकोपयोगी - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३५०/-
४०. राम नाम सुखदायी - भजन संग्रह - शांति देवी वर्मा - १५०/-
४१. नीरव का संगीत - काव्य संग्रह - डॉ. अग्निभ मुखर्जी - २५०/- 
४२. लोकतंत्र का मकबरा - काव्य संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३५०/-
४३. कलम के देव - भक्ति गीत संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - २००/-  
४४. बोध कथा सलिला - बोध कथा संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३५०/-
४५. सूरज आया द्वार - दोहा संग्रह - इन्द्र बहादुर श्रीवास्तव - १४९/- 
४६. क्षण के साथ चलाचल - आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी - ४००/- 
४७. मुझे चाँद नहीं चाहिए - बबीता चौबे - लघुकथा संग्रह- २५०/- 
४८. चंद्र विजय अभियान - साझा काव्य संग्रह - सं. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ५००/- (शीघ्र प्रकाश्य)
४९. इटैलियन सोनेट सलिला  - सं. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ५००/- (शीघ्र प्रकाश्य)
५०. जंगल में जनतंत्र - लघुकथा संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३५०/- (शीघ्र प्रकाश्य) 
***
सॉनेट 
आज 
● 
आज कह रहा जागो भाई! 
कल से कल की मिली विरासत 
कल बिन कहीं न कल हो आहत 
बिना बात मत भागो भाई! 
आज चलो सब शीश उठाकर 
कोई कुछ न किसी से छीने 
कोई न फेंके टुकड़े बीने 
बढ़ो साथ कर कदम मिलाकर 
आज मान आभार विगत का 
कर ले स्वागत हँस आगत का 
कर लेना-देना चाहत का 
आज बिदा हो दुख मत करना 
कल को आज बना श्रम करना 
सत्-शिव-सुंदर भजना-वरना 
२३-११-२०२२
●●● 
मुक्तिका
पदभार : १२१२ x ४
प्रभो! तुम्हें सदा जपूँ, कभी न भूलना मुझे।
रहूँ न काम के बिना, अकाम ही सदा रहूँ।।
न याचना, न कामना, न वासना, न क्रोध हो।
स्वदेश के लिए जिऊँ, स्वदेश के लिए मरूँ।।
ध्वजा कभी झुके नहीं, पताकिनी रुके नहीं।
न शत्रु एक शेष हो, सुमित्र के लिए जिऊँ।।
न आम आदमी कभी दुखी रहे, सुखी रहे।
न खास का गुलाम हो, हताश मैं कभी रहूँ।।
अमीर है वही न जो, गरीब से घृणा करे।
न दर्द दूँ कभी, मिटा सकूँ जरा तभी तरूँ।।
स्वधर्म को तजूँ नहीं, अधर्म मैं वरूँ नहीं।
कुरीत से सदा बचूँ, अनीत मैं नहीं करूँ।।
प्रभो! कृपा बनी रहे, क्षमा करो, दया करो।
न पाप हो; न शाप दो, न भाव भक्ति मैं तजूँ।।
२४-११-२०२२
***
दोहा और रेलगाड़ी
*
बीते दिन फुटपाथ पर, प्लेटफॉर्म पर रात
ट्रेन लेट है प्रीत की, बतला रहा प्रभात
*
बदल गया है वक़्त अब, छुकछुक गाड़ी गोल
इंजिन दिखे न भाप का, रहा नहीं कुछ मोल
*
भोर दुपहरी सांझ या, पूनम-'मावस रात
काम करे निष्काम रह, इंजिन बिन व्याघात
*
'स्टेशन आ रहा है', क्यों कहते इंसान?
आते-जाते आप वे, जगह नहीं गतिमान
*
चलें 'रेल' पर गाड़ियाँ, कहते 'आई रेल'
आती-जाती 'ट्रेन' है, बात न कर बेमेल
*
डब्बे में घुस सके जो, थाम किसी का हाथ
बैठ गए चाहें नहीं, दूजा बैठे साथ
*
तीसमारखाँ बन करें, बिना टिकिट जो सैर
टिकिट निरीक्षक पकड़ता, रहे न उनकी खैर
*
दर्जन भर करते विदा, किसी एक को व्यर्थ
भीड़ बढ़ाते अकारण, करते अर्थ-अनर्थ
*
ट्रेन छूटने तक नहीं चढ़ते, करते गप्प
चढ़ें दौड़ गिरते फिसल, प्लॉटफॉर्म पर धप्प
*
सुविधा का उपयोग कर, रखिए स्वच्छ; न तोड़
बारी आने दीजिए, करें न नाहक होड़
*
कभी नहीं वह खाइए, जो देता अनजान
खिला नशीली वस्तु वह, लूटे धन-सामान
*
चेहरा रखिए ढाँककर, स्वच्छ हमेशा हाथ
दूरी रखिए हमेशा, ऊँचा रखिए माथ
*
२३-११-२०२०
***
मुक्तक
मुख पुस्तक मुख को पढ़ने का ज्ञान दे
क्या कपाल में लिखा दिखा वरदान दे
माँ-शान कब रहे सदा मत दे ईश्वर!
शुभाशीष दे, स्नेह, मान जा दान दे
***
नवगीत
.
बसर ज़िन्दगी हो रही है
सड़क पर.
.
बजी ढोलकी
गूंज सोहर की सुन लो
टपरिया में सपने
महलों के बुन लो
दुत्कार सहता
बचपन बिचारा
सिसक, चुप रहे
खुद कन्हैया सड़क पर
.
लत्ता लपेटे
छिपा तन-बदन को
आसें न बुझती
समर्पित तपन को
फ़ान्से निबल को
सबल अट्टहासी
कुचली तितलिया मरी हैं
सड़क पर
.
मछली-मछेरा
मगर से घिरे हैं
जबां हौसले
चल, रपटकर गिरे हैं
भँवर लहरियों को
गुपचुप फ़न्साए
लव हो रहा है
ज़िहादी सड़क पर
.
कुचल गिट्टियों को
ठठाता है रोलर
दबा मिट्टियों में
विहँसता है रोकर
कालिख मनों में
डामल से ज्यादा
धुआँ उड़ उड़ाता
प्रदूषण सड़क पर
२४-११-२०१७
***
नवगीत महोत्सव लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना:
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आये हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाये हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोयें-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसायें
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पायें
मतभेदों को विहँस पचायें
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
२४-११-२०१५
***
लघुकथा:
बुद्धिजीवी और बहस
संजीव
*
'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता था। क्या वहाँ पर ट्यूटर आते थे?'
'नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने लोग आते थे जिनकी बातें बाकी सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे।'
'अच्छा, तो वहाँ टी. वी. की तरह बहस और आरोप भी लगते होंगे?'
'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था।'
'यह कैसे हो सकता है? लोग हों, वह भी बुद्धिजीवी और बहस न हो... आप गप्प तो नहीं मार रहे?'
दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका।
*
पुस्तक सलिला: हिन्दी महिमा सागर
[पुस्तक विवरण: हिन्दी महिमा सागर, संपादक डॉ. किरण पाल सिंह, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ २०४, प्रकाशक भारतीय राजभाषा विकास संस्थान, १००/२ कृष्ण नगर, देहरादून २४८००१]
हिंदी दिवस पर औपचारिक कार्यक्रमों की भीड़ में लीक से हटकर एक महत्वपूर्ण प्रकाशन हिंदी महिमा सागर का प्रकाशन है. इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए संपादक डॉ. किरण पाल सिंह तथा प्रकाशक प्रकाशक भारतीय राजभाषा विकास संस्थान देहरादून साधुवाद के पात्र हैं. शताधिक कवियों की हिंदी पर केंद्रित रचनाओं का यह सारगर्भित संकलन हिंदी प्रेमियों तथा शोध छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है. पुस्तक का आवरण तथा मुद्रण नयनाभिराम है. भारतेंदु हरिश्चंद्र जी, मैथिलीशरण जी, सेठ गोविन्ददास जी, गया प्रसाद शुक्ल सनेही, गोपाल सिंह नेपाली, प्रताप नारायण मिश्र, गिरिजा कुमार माथुर, डॉ. गिरिजा शंकर त्रिवेदी डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, आदि के साथ समकालिक वरिष्ठों अटल जी, बालकवि बैरागी, डॉ. दाऊ दयाल गुप्ता, डॉ. गार्गी शरण मिश्र 'मराल' , संजीव वर्मा 'सलिल', आचार्य भगवत दुबे, डॉ. राजेंद्र मिलन, शंकर सक्सेना, डॉ. ब्रम्हजित गौतम, परमानन्द जड़िया, यश मालवीय आदि १०८ कवियों की हिंदी विषयक रचनाओं को पढ़ पाना अपने आपमें एक दुर्लभ अवसर तथा अनुभव है. मुख्यतः गीत, ग़ज़ल, दोहा, कुण्डलिया तथा छंद मुक्त कवितायेँ पाठक को बाँधने में समर्थ हैं.
२४.११.२०१४
***
मुक्तिका
देख जंगल
कहाँ मंगल?
हर तरफ है
सिर्फ दंगल
याद आते
बहुत हंगल
स्नेह पर हो
बाँध नंगल
भू मिटाकर
चलो मंगल
***
नवगीत:
दादी को ही नहीं
गाय को भी भाती हो धूप
तुम बिन नहीं सवेरा होता
गली उनींदी ही रहती है
सूरज फसल नेह की बोता
ठंडी मन ही मन दहती है
ओसारे पर बैठी
अम्मा फटक रहीं है सूप
हित-अनहित के बीच खड़ी
बँटवारे की दीवार
शाख प्यार की हरिया-झाँके
दीवारों के पार
भौजी चलीं मटकती, तसला
लेकर दृश्य अनूप
तेल मला दादी के, बैठी
देखूँ किसकी राह?
कहाँ छबीला जिसने पाली
मन में मेरी चाह
पहना गया मुँदरिया बनकर
प्रेमनगर का भूप
***
नवगीत:
अड़े खड़े हो
न राह रोको
यहाँ न झाँको
वहाँ न ताको
न उसको घूरो
न इसको देखो
परे हटो भी
न व्यर्थ टोको
इसे बुलाओ
उसे बताओ
न राज अपना
कभी बताओ
न फ़िक्र पालो
न भाड़ झोंको
२३-११-२०१४
***
शिशु गीत सलिला : 3
*
21. नाना
मम्मी के पापा नाना,
खूब लुटाते हम पर प्यार।
जब भी वे घर आते हैं-
हम भी करते बहुत दुलार।।
खूब खिलौने लाते हैं,
मेरा मन बहलाते हैं।
नाना बाँहों में लेकर-
झूला मुझे झुलाते हैं।।
*
22. नानी -1
कहतीं रोज कहानी हैं,
माँ की माँ ही नानी हैं।
हर मुश्किल हल कर लेतीं-
सचमुच बहुत सयानी हैं।।
*
23. नानी-2
नानी जी के गोरे बाल,
धीमी-धीमी उनकी चाल।
दाँत ले गए क्या चूहे-
झुर्रीवाली क्यों है खाल?
चश्मा रखतीं नाक पर,
देखें उससे झाँक कर।
कैसे बुन लेतीं स्वेटर?
लम्बा-छोटा आँककर।।
*
24. चाचा
चाचा पापा के भाई,
हमको लगते हैं अच्छे।
रहें बड़ों सँग, लगें बड़े-
बच्चों में लगते बच्चे।।
चाचा बच्चों संग खेलें,
सबके सौ नखरे झेलें।
जो बच्चा थक जाता -
झट से गोदी में ले लें।।
*
25. बुआ
प्यारी लगतीं मुझे बुआ,
मुझे न कुछ हो- करें दुआ।
पराई बहिना पापा की-
पाला घर में हरा सुआ।।
चना-मिर्च उसको देतीं
मुझे खिलातीं मालपुआ।
*
26.मामा
मामा मुझको मन भाते,
माँ से राखी बँधवाते।
सब बच्चों को बैठकर
गप्प मारते-बतियाते।।
हम आपस में झगड़ें तो-
भाईचारा करवाते।
मुझे कार में बिठलाते-
सैर दूर तक करवाते।।
*
27. मौसी
मौसी माँ जैसी लगती,
मुझको गोद उठा हँसती।
ढोलक खूब बजाती है,
केसर-खीर खिलाती है।
*
28. दोस्त
मुझसे मिलने आये दोस्त,
आकर गले लगाये दोस्त।
खेल खेलते हम जी भर-
मेरे मन को भाये दोस्त।।
*
29. सुबह
सुबह हुई अँधियारा भागा,
हुआ उजाला भाई।
'उठो, न सो' गोदी ले माँ ने
निंदिया दूर भगाई।।
गाय रंभाई, चिड़िया चहकी,
हवा बही सुखदाई।
धूप गुनगुनी हँसकर बोली:
मुँह धो आओ भाई।।
*
30. सूरज
आसमान में आया सूरज ।
सबके मन को भाया सूरज।।
लाल-लाल आकाश हो गया।
देख सुबह मुस्काया सूरज।।
डरकर भाग गयी है ठंडी।
आँख दिखा गरमाया सूरज।।
दिन भर करता थानेदारी।
किरणों के मन भाया सूरज।।
रात-अँधेरे से डर लगता।
घर जाकर सुस्ताया सूरज।।
२३.११.२०१२
***
मुक्तिका:
जीवन की जय गाएँ हम..
*
जीवन की जय गाएँ हम..
सुख-दुःख मिल सह जाएँ हम..
*
नेह नर्मदा में प्रति पल-
लहर-लहर लहराएँ हम..
*
बाधा-संकट-अड़चन से
जूझ-जीत मुस्काएँ हम..
*
गिरने से क्यों कहोडरें?,
उठ-बढ़ मंजिल पाएँ हम..
*
जब जो जैसा उचित लगे.
अपने स्वर में गाएँ हम..
*
चुपड़ी चाह न औरों की
अपनी रूखी खाएँ हम..
*
दुःख-पीड़ा को मौन सहें.
सुख बाँटें हर्षाएँ हम..
*
तम को पी, बन दीप जलें.
दीपावली मनाएँ हम..
*
लगन-परिश्रम-कोशिश की
जय-जयकार गुंजाएँ हम..
*
पीड़ित के आँसू पोछें
हिम्मत दे, बहलाएँ हम..
*
अमिय बाँट, विष कंठ धरें.
नीलकंठ बन जाएँ हम..
***
लीक से हटकर एक प्रयोग:
निरंतरी मुक्तिका:
*
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है.
कहा धरती ने यूँ नभ से, न क्यों सूरज उगाता है??
*
न सूरज-चाँद की गलती, निशा-ऊषा न दोषी हैं.
प्रभाकर हो या रजनीचर, सभी को दिल नचाता है..
*
न दिल ये बिल चुकाता है, न ठगता या ठगाता है.
लिया दिल देके दिल, सौदा नगद कर मुस्कुराता है.
*
करा सौदा खरा जिसने, जो जीता वो सिकंदर है.
क्यों कीमत तू अदा करता है?, क्यों तू सिर कटाता है??
*
यहाँ जो सिर कटाता है, कटाये- हम तो नेता हैं.
हमारा शौक- अपने मुल्क को ही बेच-खाता है..
*
करें क्यों मुल्क की चिंता?, सकल दुनिया हमारी है..
है बंटाढार इंसां चाँद औ' मंगल पे जाता है..
*
न मंगल अब कभी जंगल में कर पाओगे ये सच है.
जहाँ भी पग रखे इंसान उसको अंत आता है..
*
न आता अंत तो कहिए कहाँ धरती पे पग रखते,
जलाकर रोम नीरो सिर्फ बंसी ही बजाता है..
*
बजी बंसी तो सारा जग, करेगा रासलीला भी.
कोई दामन फँसाता है, कोई दामन बचाता है..
*
लगे दामन पे कोई दाग, तो चिंता न कुछ करना.
बताता रोज विज्ञापन, इन्हें कैसे छुड़ाता है??
*
छुड़ाना पिंड यारों से, नहीं आसां तनिक यारों.
सभी यह जानते हैं, यार ही चूना लगाता है..
*
लगाता है अगर चूना, तो कत्था भी लगाता है.
लपेटा पान का पत्ता, हमें खाता-खिलाता है..
*
खिलाना और खाना ही हमारी सभ्यता- मानो.
जगत ईमानदारी का, हमें अभिनय दिखाता है..
*
किया अभिनय न गर तो सत्य जानेगा जमाना यह.
कोई कीमत अदा हो हर बशर सच को छिपाता है..
*
छिपाता है, दिखाता है, दिखाता है, छिपाता है.
बचाकर आँख टँगड़ी मार, खुद को खुद गिराता है..
*
गिराता क्या?, उठाता क्या?, फँसाता क्या?, बचाता क्या??
अजब इंसान चूहे खाए सौ, फिर हज को जाता है..
*
न जाता है, न जाएगा, महज धमकाएगा तुमको.
कोई सत्ता बचाता है, कमीशन कोई खाता है..
*
कमीशन बिन न जीवन में, मजा आता है सच मानो.
कोई रिश्ता निभाता है, कोई ठेंगा बताता है..
*
कमाना है, कमाना है, कमाना है, कमाना है.
कमीना कहना है?, कह लो, 'सलिल' फिर भी कमाता है..
२३-११-२०१०
***

गुरुवार, नवंबर 23, 2023

विरासत, लघुकथा, करामात, सआदत हसन मंटो

विरासत 
लघुकथा
करामात
सआदत हसन मंटो
*
लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरु किए।
लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अंधेरे में बाहर फेंकने लगे, कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौक़ा पाकर अपने से अलहदा कर दिया, ताकि क़ानूनी गिरफ़्त से बचे रहें।
एक आदमी को बहुत दिक़्कत पेश आई। उसके पास शक्कर की दो बोरियाँ थी जो उसने पंसारी की दूकान से लूटी थीं। एक तो वह जूँ-तूँ रात के अंधेरे में पास वाले कुएँ में फेंक आया, लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा, ख़ुद भी साथ चला गया।
शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गये। कुएँ में रस्सियाँ डाली गईं।
जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया लेकिन वह चंद घंटों के बाद मर गया।
दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए उस कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था।
उसी रात उस आदमी की क़ब्र पर दीए जल रहे थे।
***

शुक्रवार, अगस्त 12, 2022

वार्षिकोत्सव,तारकेश्वरी यादव 'सुधि',हास्य,गीत,दोहे,नवगीत,दोहा यमक, लघुकथा

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान : समन्वय प्रकाशन जबलपुर
वनमाली सृजन पीठ : जबलपुर ईकाई
कार्यालय: ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
समाचार :
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर का वार्षिकोत्सव आगामी २० अगस्त २०२२ को

जबलपुर। विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर का वार्षिकोत्सव आगामी २० अगस्त २०२२ को स्वामी दयानन्द सभागार, आर्य समाज भवन, जबलपुर में संपन्न होगा। संस्थान के संयोजक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा प्रदत्त जानकारी के अनुसार इस अवसर पर श्रेष्ठ साहित्य सृजन, समाज एवं पर्यावरण सुधार तथा कला आदि क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य हेतु चयनित प्रतिभाओं को अलंकरण पत्र, मानधन, शाल, श्री फल आदि से अलंकृत किया जाएगा। इस अवसर पर दक्षिण आफ्रिका के ३ देशों में मुख्य अभियंता के रूप में भारतीय अभियांत्रिकी कौशल की विजय पताका फहरा चुके अभियंता कोमलचंद्र जैन की संस्मरण कृति 'अफ्रीका डायरी' का विमोचन माननीय न्यायमूर्ति विमला देवी जैन के कर कमलों से संपन्न होगा।


संस्था के अध्यक्ष नवगीतकार बसंत शर्मा ने बताया कि नव कार्यकारिणी के गठन पश्चात् द्वितीय सत्र में '' भाषा और भविष्य'' विषय पर अभियंता अमरेंद्र नारायण की अध्यक्षता तथा मुम्बई से पधार रहे विख्यात पटकथा लेखन पवन सेठी के मुख्यातिथ्य में संगोष्ठी संपन्न होगी जिसमें सर्वश्री डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, डॉ. इला घोष, डॉ. स्मृति शुक्ल, डॉ. नीना उपाध्याय, डॉ. सुमन लता श्रीवास्तव, डॉ. हरिशंकर दुबे, डॉ. अनिल कोरी आदि विचार व्यक्त करेंगे। आयोजन समिति सचिव हरि सहाय पांडे ने बताया कि वार्षिकोत्सव में संस्थान की दिल्ली, कोलकाता, , भीलवाड़ा, पलामू, भोपाल, शिवपुरी, दमोह आदि इकाइयों के प्रतिनिधि सम्मिलित होने पधार रहे हैं।


मुख्यालय सचिव छाया सक्सेना के अनुसार संस्थान द्वारा रचनाकारों को न्यूनतम लागत पर साहित्य प्रकाशन हेतु सहयोग दिया जाता है। कार्यकारिणी सचिव अभियंता अरुण भटनागर ने बताया कि संस्थान नव रचनाकारों को कार्यशालाओं के माध्यम से लेखन विधाओं में मार्गदर्शन प्रदान करता है। संस्था मुख्यालय में लगभग १०,००० पुस्तकों का पुस्तकालय भी सदस्यों के उपयोग हेतु उपलब्ध है। शिक्षा प्रकोष्ठ प्रभारी डॉ. मुकुल तिवारी ने जानकारी दी कि संस्था की इकाइयाँ ऑनलाइन लाइव कार्यक्रमों के माध्यम से नर्मदा तीरे उपनिषद वार्ता, संत समागम, कृति और कृतिकार, कवि और कविता, छंद शाला, भाषा शिक्षण, विज्ञान वार्ता आदि कार्यक्रमों का संचालन कर देश-विदेश से जुड़े रचनाधर्मियों का मार्गदर्शन करती है। बाल एवं किशोर प्रकोष्ठ प्रभारी विनीता श्रीवास्तव ने संस्था द्वारा पुस्तक संस्कृति के प्रोत्साहन हेतु निरंतर किये जा रहे प्रयासों की जानकारी दी गई। प्रचार सह सचिव युवा पत्रकार अजय मिश्रा ने पर्यावरण सुधार तथा सामाजिक नव जागरण की दिशा में किए जा रहे प्रयासों की जानकारी दी।
***

पुस्तक सलिला :
रसरंगिनी : मनसंगिनी
*
[पुस्तक विवरण : रसरंगिनी, मुकरी संग्रह, तारकेश्वरी यादव 'सुधि', प्रथम संस्करण, वर्ष २०२०, आकार २१ से. मी. x १४ से. मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ४८, मूल्य ६०रु., राजस्थानी ग्रंथागार प्रकाशन जोधपुर, रचनाकार संपर्क : truyadav44@gmailcom ]
*
भारतीय लोक साहित्य में आदिकाल से प्रश्नोत्तर शैली में काव्य सृजन की परंपरा अटूट है। नगरों की तुलना में कम शिक्षित और नासमझ समझे जानेवाले ग्रामीण मजदूर-किसानों ने काम की एकरसता और थकान को दूर करने के लिए मौसमी लोकगीत गाने के साथ-साथ एक दूसरे के साथ स्वस्थ्य छेड़-छाड़ कर ते हुए प्रश्नोत्तरी गायन के शैली विकसित की। इस शैली को समय-समय पर दिग्गज साहित्यकारों ने भी अपनाया। कबीर और खुसरो इस क्षेत्र में सर्वाधिक पुराने कवि हैं जिनकी रचनाएँ प्राप्त हैं। इन दोनों की प्रश्नोत्तरी रचनाएँ अध्यात्म से जुडी हैं। कबीर की रचनाओं में गूढ़ता है तो खुसरों की रचनाओं में लोक रंजकता। कबीर की रचनाएँ साखी हैं तो खुसरो की मुकरी। साखी में सीख देने का भाव है तो मुकरी में कुछ कहना और उससे मुकरने का भाव निहित है।
कबीर ने कहा -
चलती चाकी देखकर, दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में, साबित बचो न कोय
कबीर के पुत्र कमाल ने उत्तर दिया-
चलती चाकी देखकर दिया कमाल ठिठोय
जो तीली से लग रहा, मार सका नहीं कोय
ये दोनों दोहे द्विअर्थी हैं। कबीर के दोहे का सामान्य अर्थ है चक्की के दो पाटों के बीच में जो दाना पड़ा वह पिस जायेगा उसे कोई बचा नहीं सकता जबकि गूढ़ार्थ है ब्रह्म और माया के दो पाटों में पीसने से जीव की रक्षा कोई नहीं कर सकता। कमाल के दोहे का सामान्य अर्थ है कि दोनों पाटों से बचकर,चलती हुई चक्की की कीली (धुरी) से जो दाना चिपक गया वह नहीं पिसा, बच गया जबकि विशेषार्थ है संसार की चक्की में जो जीव ब्रह्म से प्रेम कर उससे अभिन्न हो गया उसका यम भी बाल-बाँका नहीं कर सकता।
शब्द कोष के अनुसार मुक़री, संज्ञा स्त्रीलिंग शब्द हैं जिसका अर्थ है एक पद्य जिसमें पहले कथन किया जाए फिर उसका खंडन किया जाए। वह कविता जिसमें प्रारंभिक चरणों में कही हुई बात से मुकरकर उसके अंत में भिन्न अभिप्राय व्यक्त किया जाय। यह कविता प्रायः चार चरणों की होती है इसके पहले तीन चरण ऐसे होते हैं; जिनका आशय दो जगह घट सकता है। इनसे प्रत्यक्ष रूप से जिस पदार्थ या व्यक्ति का आशय निकलता है, चौथे चरण में किसी और पदार्थ का नाम लेकर, उससे इनकार कर दिया जाता है । इस प्रकार मानो कही हुई बात से मुकरते हुए कुछ और ही अभिप्राय प्रकट किया जाता है।
मुकरी लोकप्रचलित पहेलियों का ही एक रूप है, जिसका लक्ष्य मनोरंजन के साथ-साथ बुद्धिचातुरी की परीक्षा लेना होता है। इसमें जो बातें कही जाती हैं, वे द्वयर्थक या श्लिष्ट होती है, पर उन दोनों अर्थों में से जो प्रधान होता है, उससे मुकरकर दूसरे अर्थ को उसी छन्द में स्वीकार किया जाता है, किन्तु यह स्वीकारोक्ति वास्तविक नहीं होती, कही हुई बात से मुकरकर उसकी जगह कोई दूसरी उपयुक्त बात बनाकर कह दी जाती है। जिससे सुननेवाला कुछ का कुछ समझने लगता है। मुकरी और पहेली में साम्य और वैषम्य दोनों है। पहेली में भी प्रश्न और उत्तर होता है किन्तु पहेली का उत्तर उसके पद्य का अंग नहीं होता अपितु पतंग की पूंछ की तरह उससे जुड़ा होकर भी अलग रहता है।
हिन्दी में अमीर खुसरो ने इस लोककाव्य-रूप को साहित्यिक रूप दिया। अलंकार की दृष्टि से इसे छेकापह्नुति कह सकते हैं, क्योंकि इसमें प्रस्तुत अर्थ को अस्वीकार करके अप्रस्तुत को स्थापित किया जाता है। इसे ‘कह-मुकरी’ अर्थात पहले कहना और फिर मुकर जाना भी कहते हैं। हिन्दी में अमीर खुसरो की मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। खुसरो इसके अंत में प्राय: 'सखी' या 'सखिया' भी कहते हैं । एक जीवंत उदाहरण देखें -
सगरि रैन वह मो संग जागा।
भोर भई तब बिछुरन लागा।
वाके बिछरत फाटे हिया। क्यों सखि साजन? ना सखि दिया।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र रचित एक मुकरी का आनंद लें -
भीतर भीतर सब रस चूसै, हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै। जाहिर बातन मैं अति तेज, क्यों सखि सज्जन? नहिं अँगरेज।
इस सदी के आरंभ में मैंने भी कुछ मुकरियाँ कहीं। एक उदाहरण देखें -
इससे उसको जोड़ मिलाता झटपट दूरी दूर भगाता कोई स्वार्थ न कोई हेतु क्या सखि साजन, ना सखि सेतु।
२०११ में प्रकाशित योगराज प्रभाकर रचित एक मुकरी देखें -
इस बिन तो वन उपवन सूना,
सच बोलूँ तो सावन सूना,
सूनी सांझ है सूनी भोर,
ए सखि साजन ? ना सखि मोर !
अगस्त २०१७ में मंतव्य पत्रिका ने डॉ. प्रदीप शुक्ल की ४८० मुकरियों को एक १६७ पृष्ठीय विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया। एक मुकरी का अवलोकन करें -
जब आये वो धूम मचाये,
मुझको रातों रात जगाये,
जाने उससे कौन लगाव,
ए सखि साजन ? नहीं चुनाव!
इंजी. त्रिलोक सिंह ठकुरेला (मुकरी संग्रह आनंद मंजरी) ने भी मुकरी लेखन की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनकी कहमुकरी विषय वैविध्य की दृष्टी से महत्वपूर्ण हैं। एक बानगी पेश है-
जैसे चाहे वह तन छूता। उसको रोके, किसका बूता। करता रहता अपनी मर्जी। क्या सखि, साजन ? ना सखि, दर्जी।
कह मुकरियाँ सृजन के क्रम की नवीनतम कड़ी हैं तारकेश्वरी यादव 'सुधि' जिन्होंने १२० मुकरियों का संग्रह 'रसरंगिनी' शीर्षक से प्रकाशित किया है। इन मुकरियों में शिल्प की दृष्टि से चार पंक्तियाँ हैं जिनमें १६-१६ मात्राएँ हैं। प्रथम दो पंक्तियों में सामान तुकांत है जबकि शेष दो पंक्तियों में भिन्न समान तुकांत है। अंतिम पंक्ति का आठ मात्रिक प्रथम चरण प्रश्न का उत्तर देते हुए पूर्ण होता है जबकि आठ मात्रिक दूसरे चरण में इसे नकार कर वैकल्पिक उत्तर दिया जाता है। पूर्ववर्ती कवियों ने भिन्न छंदों, पंक्ति संख्या तथा यति का प्रयोग किया है किंतु सुधि जी ने आजकल प्रचलि सोलह मात्रिक चार चरणों में ही मुकरी कही है। इस संग्रह में ईश्वर, डॉक्टर, डाकिया, मनिहार, मालिन, चौकीदार, आँगन, सपना, पायल, दर्पण, काजल, सागर, बसंत, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, बेलन, मंच्छर, आदि पारंपरिक विषयों के साथ-साथ गूगल, मोबाइल, डायरी, चाय, हलवा, टेलीविजन जैसी दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं पर भी मुकरियाँ कही गयीं हैं।
तारकेश्वरी की मुकरियों की 'कहन' सहज बोध गम्य है। उनकी भाषा सरल है। वे क्लिष्ट शब्दों का उपयोग न कर मुकरी के रसानंद में पाठक को निमग्न होने देती हैं।
जब भी बैठा थाम कलाई
मैं मन ही मन में इतराई
नहीं कर पाती मैं प्रतिकार
क्या सखि साजन? नहीं, मनिहार
प्रकृति के उपादान बादल सागर, अँधेरा, आदि उन्हें प्रिय हैं।
रात गए वह घर में आता
सुबह सदा ही जल्दी जाता
दिन में जाने किधर बसेरा
काया सखि साजन? नहीं अँधेरा
किसी वास्तु के लक्षणों के मध्यान से उसका शब्दांकन करना मुकरी की विशेषता है। तारकेश्वरी इस कला में दक्ष हैं -
जैसी हूँ वैसी बतलाये
सत्य बोलना उसे सुहाए
मेरा मुझको करता अर्पण
क्या सखि साजन? ना सखी दर्पण
सप्ताह के छह दिन काम करने के बाद इतवार की सब को प्रतीक्षा रहती है। तारकेश्वरी की मुकरी भी अपवाद नहीं है -
जब वह आता देता खुशियाँ
बात जोहती मेरी अँखियाँ
फरमाइश का लगे अंबार
क्या सखि साजन? नहीं इतवार
सुगृहणी का काम छलनी के बिना नहीं चलता, 'सार सार को गहि रहे' जैसे गुण की धनी छलनी पर मुकरी में 'मनहरनी' शब्द का प्रयोग नवता लिए है-
सार-सार वह मुझको देती
अपशिष्टों को खुद रख लेती
इसीलिये है वह मनहरनी
क्या प्रिय सजनी? ना प्रिय छलनी
सुबह उठते ही चाय के तलब सबको लगती है। 'चाय' पर मुकरी अच्छी बन पड़ी है -
जब भी होठों को छू जाए
तन-मन की सब थकन मिटाए
उसका कोई नहीं पर्याय
क्या सखि साजन? ना सखि चाय
टेलीविजन आजकल जीवन की अनिवार्यता बन गया है। तारकेश्वरी का मुकरी लोक भला कैसे इससे दूर रह सकता है? इसमें अंतिम पंक्ति मात्राधिक्य की शिकार हो गयी है।
जब मैं चाहूँ तब वह बोले
अगर रोक दूँ मुँह ना खोले
अक्सर वह बहलाता है मन
क्या सखि साजन ? ना सखि टेलीविजन
बिखरते परिवार और घर-घर में उठी दीवार एक अप्रिय सत्य है। तारकेश्वरी मुकरी में इस स्थिति से आँखें चार करती हैं-
खंडित करती भाई चारा
पल में कर दे वह बँटवारा
बिखरा देती घर-परिवार
क्या सखी साजन? नहीं दीवार
मीरा पर मुकरी कहते समय तारकेश्वरी 'प्रेम दीवानी' विशेषण का प्रयोग करती हैं।
वह तो पगली प्रेम दीवानी
समझाया पर बात न मानी
उसे लुभाये ढोल मंजीरा
क्या प्रिय सजनी? नाप्रिय मीरा
मुकरी विधा को समृद्ध करने में तारकेश्वरी 'सुधि' का अवदान महत्वपूर्ण है। उन्हें बधाई। अपवाद स्वरूप मात्राधिक्य व लय-भंग के बावजूद इन मुकरियों में पाठक को बाँधने की सामर्थ्य है।
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
***
विमर्श:
बचाओ पर्वत, घाटी, जमीन और सागर
महासागरों का पानी पीने-योग्य मीठा व पौष्टिक होता तो सम्भवतय इंसान पर्वतों को समतल करके गगनचुंबी होटल्स, मोल्स, फ्लैट्स बनाकर नदियों को विलुप्त करवाकर उनकी तलछटी में झुग्गी-झोंपड़ियाँ बसा चूका होता; महासागरों को गट्टर में बदलकर फेसबुक-युग आने से पहले विलुप्त हो चूका होता! सौभाग्य से महासागरों का पानी खारा और लवणीय है; पीने के योग्य नहीं है; महासागरों की बदौलत पर्वतों की चोटियों पर जमा हुई बर्फ पिघलकर नदियों के रूप में बहती है और धरती पर जीवन का आधार बनती है! बर्फ पिघलने से बना पानी मीठा तो होता है लेकिन उसमें पौष्टिकता पर्वतों की वनस्पति व पत्थरों से आती है! मीठे-पौष्टिक पानी हेतु पर्वतों व पर्वतों की प्राकृतिक सुन्दरता, रमणीयता व स्वच्छता को सुरक्षित व संरक्षित करना यानी पर्वतों एवं नदियों के बहाव-क्षेत्रों में आवाजाही, आवास व उद्योगीकरण को नियंत्रित रखना अत्यंत ही जरूरी है! जीवन है तो सबकुछ है यानी पर्वतों व नदियों के संरक्षण के सामने हिंदुत्व, इस्लाम, राष्ट्रवाद आदि शब्द महत्वहीन हैं! >>> तथाकथित राजनीतिज्ञ व नेता राजनीति की किताब को ‘राजनीतिक-विज्ञान’ तो कहते हैं, लेकिन राजनीति करते समय ‘विज्ञान’ को भूल जाते हैं! फलस्वरूप राजनीति पर ‘अज्ञानता’ व ‘मूर्खता’ हावी होकर भारतीय-उपमहाद्वीप का दुर्भाग्य बनकर उभरती है; धूर्तता, पाखण्ड, नौटंकी की बदौलत लोकतंत्र कब्बडी की प्रतियोगिता जैंसा बन गया है; नासमझ भावुक आमजन इस कब्बडी-प्रतियोगिता में चलरही दांव-पेच से मंत्रमुग्ध होकर सबकुछ भूल जाता है: नेताओं के आका पूंजीपति अपना सिट्टा-सेककर साफसुथरी रमणीक जगह पर रैनबसेरा बनाकर ठाठ से रहते हैं! >>> पर्वतों व नदियों के बहाव-क्षेत्रों में आवाजाही, आवास व उद्योगीकरण बढ़ने का ही परिणाम है कि आम-इंसान की औसत प्राकृतिक-आयु 40 वर्ष है, 40 के बाद उसकी औषधीय-आयु शुरू हो जाती है!
***
हास्य रचना:
उल्लू उवाच
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
१२-८-२०१९
***

मेघ अश्रु ढलका रहे, पवन बँधाए धैर्य
भू आँचल से पोछती, सलिल बहे निर्वैर्य
***
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
*
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
*
प्रतिभा मेघा दीप्ति उजाला
शुभ या अशुभ नहीं होता है.
वैसा फल पाता है साधक-
जैसा बीज रहा बोता है.
शिव को भजते राम और
रावण दोनों पर भाव भिन्न है.
एक शिविर में नव जीवन है
दूजे का अस्तित्व छिन्न है.
शिवता हो या भाव-भक्ति हो
सबको अब तक प्रार्थनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.....
*
अन्न एक ही खाकर पलते
सुर नर असुर संत पशु-पक्षी.
कोई अशुभ का वाहक होता
नहीं किसी सा है शुभ-पक्षी.
हो अखंड या खंड किन्तु
राकेश तिमिर को हरता ही है.
पूनम और अमावस दोनों
संगिनीयों को वरता भी है
भू की उर्वरता-वत्सलता
'सलिल' सभी को अर्चनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
*
कौन पुरातन और नया क्या?
क्या लाये थे?, साथ गया क्या?
राग-विराग सभी के अन्दर-
क्या बेशर्मी और हया क्या?
अतिभोगी ना अतिवैरागी.
सदा जले अंतर में आगी.
नाश और निर्माण संग हो-
बने विरागी ही अनुरागी.
प्रभु-अर्पित निष्काम भाव से
'सलिल'-साधना साधनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
***
नवगीत
*
हैं स्वतंत्र पर
तंत्र न अपना
दाल दले छाती पर
*
गए विदेशी दूर
स्वदेशी अफसर
हुए पराए.
सत्ता-सुविधा लीन
हुए जन प्रतिनिधि
खेले-खाए.
कृषक, श्रमिक,
अभियंता शोषित
शिक्षक है अस्थाई.
न्याय व्यवस्था
अंधी-बहरी, है
दयालु नाती पर
हैं स्वतंत्र पर
तंत्र न अपना
दाल दले छाती पर
*
अस्पताल है
डॉक्टर गायब
रोगी राम भरोसे.
अंगरेजी में
मँहगी औषधि
लिखें, कंपनी पोसे.
दस प्रतिशत ने
अस्सी प्रतिशत
देश संपदा पाई.
देशभक्त पर
सौ बंदिश हैं
कृपा देश-घाती पर
हैं स्वतंत्र पर
तंत्र न अपना
दाल दले छाती पर
१२-८-२०१७
***
रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
*
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शव नंदन-वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धरें कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधन सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
*
: रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||
सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विक्राक सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम|| २||
सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पा र्लाहरा रहे एहेन, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे- बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि || ३||
पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
*
लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि || ४||
केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रामकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
*
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकलपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः ||५||
ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
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सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः |
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ||६||
सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
*
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम || ७||
धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
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अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत् - कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः || ८||
नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
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प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतकच्छिदं भजे || ९||
पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
*
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १०||
शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले,, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
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जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः || ११||
वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दह्काएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
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दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहत || १२||
कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
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कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् || १३||
कुञ्ज-कछारों में गंगा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..
मैं कब गंगाजी कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
*
निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः.
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय:|| १४||
सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते,
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते.
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..
देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.
प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनों विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||
पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
*
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् || १६||
शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखेंहरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..
इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
*
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः || १७||
करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर.
करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..
परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.
|| इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||
|| रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||
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Shiva Tandava Stotram (शिवताण्डवस्तोत्रम्)
Shiva Tandava Stotram is a hymn of praise in the Hindu tradition that describes Shiva's power and beauty. It was sung by the son of Rishi Vishrawas (aka Vishrava), Ravana whose brother is Kubera. Both the fourth and fifth quatrains of this hymn conclude with lists of Shiva's epithets as destroyer, even the destroyer of death itself. Alliteration and onomatopoeia create roiling waves of resounding beauty in this example of Hindu devotional poetry.
In the final quatrain of the poem, after tiring of rampaging across the Earth, Ravana asks, "When will I be happy?" Because of the intensity of his prayers and ascetic meditation, of which this hymn was an example, Ravana received from Shiva the boon of indestructibility by all powers on heaven and earth — except by a human being. Disdaining the seeming weakness of humans, Ravana abducted the wife of Rama, Lord Vishnu incarnate. India's great epic, the Ramayana, tells the story of this abduction and of the battle between Lord Rama and Ravana which shook the universe.
The stotra is in the Aryageeti (आर्यागीति) style, a variant of the Arya (आर्य) style. There are 32 syllables per half shloka.
Shiva Tandava Mantra is a great prayer of Dancing Shiva and those who reads Siva Tandav Stotra at the end of every worship or, reads it after worship of Lord Shiva on the Pradosha day, will get by the blessing of Lord Shiva, and the affectionate sight of god of wealth.
Shiva Tandava Stotram
Jatatavee galajjala pravaha pavitasthale,
Gale avalabhya lambithaam bhujanga tunga malikaam,
Damaddamaddama ddama ninnadava damarvayam,
Chakara chanda tandavam tanotu na shivh shivam. 1
That Shiva, Who have long-garlands of the snake king (cobra) at the neck which is purified by the flow of trickling water-drops in the forest-like twisted hair-locks, Who danced the fierce Tāṇḍava-dance to the music of a sounding-drum, — may bless us.[1]
Jata kataha sambhramabhramanillimpa nirjari,
Vilola veechi vallari viraja mana moordhani,
Dhaga dhaga dhaga jjwala lalata patta pavake,
Kishora Chandra shekare ratih prati kshanam mama. 2
At every moment, may I find pleasure in Shiva, Whose head is situated in between the creeper-like unsteady waves of Nilimpanirjharī (Gańgā), in whose head unsteadily fire (energy) is fuming the like twisted hair-locks, Who has crackling and blazing fire at the surface of forehead, and Who has a crescent-moon (young moon) at the forehead.[2]
Dhara dharendra nandini vilasa bhandhu bhandura,
Sphuradriganta santati pramoda mana manase,
Kripa kataksha dhorani niruddha durdharapadi,
Kwachi digambare mano vinodametu vastuni. 3
May my mind seeks happiness in Shiva, Whose mind has the shining universe and all the living-beings inside, Who is the charming sportive-friend of the daughter of the mountain-king of the Earth ( Himālaya's daughter parvati), Whose uninterrupted series of merciful-glances conceals immense-troubles, and Who has direction as His clothes.[3]
Jata bhujanga pingala sphurat phana mani prabha,
Kadamba kumkuma drava pralipta digwadhu mukhe,
Madhandha sindhura sphuratwagu uttariyamedure,
Manovinodamadbhutam bibhartu bhoota bhartari. 4
May my mind hold in Shiva, by Whom — with the light from the jewels of the shining-hoods of creeper-like yellow-snakes — the face of Dikkanyās’ are smeared with Kadamba-juice like red Kuńkuma, Who looks dense due to the glittering skin-garment of an intoxicated elephant, and Who is the Lord of the ghosts.[4]
Lalata chatwara jwaladdhanam jaya sphulingaya,
Nipeeta pancha sayakam namannilimpanayakam,
Sudha mayookha lekhaya virajamana shekharam,
Maha kapali sampade, sirijjatalamastunah. 5
For a long time, may Shiva — Whose foot-basement is grey due to the series of pollen dust from flowers at the head of Indra (Sahasralocana) and all other demi-gods, Whose matted hairlocks are tied by a garland of the king of snakes, and Who has a head-jewel of the friend of cakora bird — produce prosperity.[5]
Sahastralochana prabhrityashesha lekha shekhara,
Prasoona dhooli dhorani vidhu saranghripeethabhuh,
Bhujangaraja Malaya nibaddha jaata jootakah,
Shriyai chiraya jayatam chakora bandhu shekharah. 6
May we acquire the possession of tress-locks of shiva, Which absorbed the five-arrows (of Kaamadeva) in the sparks of the blazing fire stored in the rectangular-forehead, Which are being bowed by the leader of supernatural-beings, Which have an enticing-forehead with a beautiful streak of crescent-moon.[6]
Karala bhala pattika dhagaddhadhagaddha gajjwala,
Ddhananjayahuti kruta prachanda panchasayake ,
Dharadharendra nandini kuchagra chithrapathraka,
Prakalpanaikashilpini, trilochane ratirmama. 7
May I find pleasure in Trilocana, Who offered the five great-arrows (of Kāmadeva) to the blazing and chattering fire of the plate-like forehead, and Who is the sole-artist placing variegated artistic lines on the breasts of the daughter of Himālaya (Pārvatī).[7]
Naveena megha mandali niruddha durdharatsphurat,
Kuhuh nisheethineetamah prabhandha baddha kandharah,
Nilimpa nirjhari dharastanotu krutti sundarah,
Kalanidhana bandhurah shriyam jagat durandharah. 8
May Shiva — Whose cord-tied neck is dark like a night with shining-moon obstructed by a group of harsh and new clouds, Who holds the River Gańgā, Whose cloth is made of elephant-skin, Who has a curved and crescent moon placed at the forehead, and Who bears the universe — expand [my] wealth.[8]
Prafulla neela pankaja prapancha kalimaprabha,
Valambi kantha kandali ruchi prabandha kandharam,
Smarchchhidam purachchhidam bhavachchhidam makhachchhidam,
Gajachchhidandha kachchhidam tamant kachchhidam bhaje. 9
I adore Shiva, Who supports the dark glow of blooming blue lotus series at around the girdle of His neck, Who cuts-off Smara (Kāmadeva), Who cuts-off Pura, Who cuts-off the mundane existence, Who cuts-off the sacrifice (of Dakṣa), Who cuts-off the demon Gaja, Who cuts-off Andhaka, and Who cuts-off Yama (death).[9]
Akharva sarva mangalaa kalaa kadamba manjari,
Rasa pravaha madhuri vijrumbhane madhuvritam,
Smrantakam, purantakam, bhavantakam, makhantakam,
Gajantakandhakantakam tamantakantakam bhaje. 10
I adore Shiva, Who only eats the sweet-flow of nectar from the beautiful flowers of Kadamba-trees which are the abode of all important auspicious qualities, Who destroys Smara (Kāmadeva), Who destroys Pura, Who destroys the mundane existence, Who destroys the sacrifice (of Dakṣa), Who destroys the demon Gaja, Who destroys Andhaka, and Who destroys Yama (death).[10]
Jayatwadabhra vibhrama bhramadbujanga mashwasad,
Vinirgamat, kramasphurat, karala bhala havya vaat,
Dhimiddhimiddhimi maddhwanan mridanga tunga mangala,
Dhwani krama pravartitah prachanda tandawah shivah. 11
May Shiva, Whose dreadful forehead has oblations of plentiful, turbulent and wandering snake-hisses — first coming out and then sparking, Whose fierce tāṇḍava-dance is set in motion by the sound-series of the auspicious and best-drum (ḍamaru) — which is sounding with ‘dhimit-dhimit’ sounds, be victorious.[11]
Drushadwichitra talpayor bhujanga mauktikastrajor,
Garishtha ratna loshtayoh suhrid wipaksha pakshayoh,
Trinara vinda chakshushoh praja mahee mahendrayoh,
Samapravrittikah katha sadashivam bhajamyaham. 12
When will I adore SadāShiva with an equal vision towards varied ways of the world, a snake or a pearl-garland, royal-gems or a lump of dirt, friend or enemy sides, a grass-eyed or a lotus-eyed person, and common men or the king.[12]
Kada nilimpa nirjharee nikunja kotare vasan,
Vimukta durmatih sada shirahstha manjali vahan,
Vilola lola lochane lalama bhala lagnakah,
Shiveti mantra muchcharan kada sukhee bhavamyaham. 13
Living in the hollow of a tree in the thickets of River Gańgā, always free from ill-thinking, bearing añjali at the forehead, free from lustful eyes, and forehead and head bonded, when will I become content while reciting the mantra ‘‘Shiva?’’[13]
Nilimpnath naagaree kadamb mauli mallika,
nigumpha nirbharkshanm dhooshnika manoharah.
tanotu no manomudam vinodineem maharshinam,
parshriyam param padam tadanjatvisham chayah.14
Divine beauty of different parts of Lord Shiv which are enlighted by fragrence of the flowers decorating the twisted hairlocks of angles may always bless us with happiness and pleasure.[14]
prachanda wadavaanal prabha shubh pracharinee,
mahaasht siddhi kaaminee janavahoot jalpana.
vimukta vaam lochano vivaah kaalikdhvanih,
shiveti mantra bhooshano jagajjayaay jaaytaam.15
The Shakti (energy) which is capable of burning all the sins and spreading welfare of all and the pleasent sound produced by angles during enchanting the pious Shiv mantra at the time of Shiv-Parvati Vivah may winover & destroy all the sufferings of the world.[15]
Imam hi nitya meva mukta muttamottamstavam,
Pathantaram bhunannaro vishuddhmeti santatam,
Hare Gurau sa bhaktimashu yati nanyatha gati,
Vimohanam hi dehinaa tu shankarasya chitanam. 16
Reading, remembering, and reciting this eternal, having spoken thus, and the best among best eulogy indeed incessantly leads to purity. In preceptor Hara (Śhiva) immediately the state of complete devotion is achieved; no other option is there. Just the thought of Śhiva (Śhańkara) is enough for the people.[16]
Poojavasana samaye dasha vaktra geetam,
Yah shambhu poojana param pathati pradoshe,
Tasyasthiraam ratha gajendra turanga yuktaam,
Lakshmeem sadaiva sumukheem pradadaati shambuh. 17
At the time of prayer-completion, that who reads this song by Daśavaktra (Rāvaṇa) after the prayer of Śambhu — Śambhu gives him stable wealth including chariots, elephants and horses, and beautiful face.[17]
Iti Shree Ravanavirachitam, Shiva tandava stotram, Sampoornam.
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शिव महिम्न स्तोत्र का उन्नीसवाँ श्लोक
हरिस्ते साहस्त्रं कमलबलिमाधाय पदयोर्यदेकोने
तस्मिन्निजमुदहरन्नेत्रकमलम|
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषारयाणां
रक्षायै त्रिपुरहर! जागर्ति जगताम|१९|
भावानुवाद
शिव-पूजन हित विराजे, हरि ले कमल हजार
एक कमल हरकर रहे, हर चुप दृश्य निहार
नटवर दुविधा-व्यथित हर-कौतुक से अनजान
नयनकमल अर्पण करूँ, मन ही मनमें ठान
जैसे ही तत्पर हुए, प्रगटे शिव त्रिपुरारि
रक्षा की दे सुदर्शन चक्र- विव्हल गिरधारि
*****

***
दोहा सलिला
गले मिले दोहा यमक

देव! दूर कर बला हर, हो न करबला और
जाई न हो अन्याय अब, चले न्याय का दौर
*
'सलिल' न हो नवजात की, अब कोई नव जात
मानव मानव एक हो, भेद रहे अज्ञात
*
अबला सबला या बला, बतलायेगा कौन?
बजे न तबला शीश पर, बेहतर रहिए मौन
***

लघुकथा
फ़र्क
स्मृतिशेष विष्णु प्रभाकर जी
*
उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमारेखा को देखा जाए, जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है? दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था-पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे ! इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, "उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।"
उसने उत्तर दिया,"जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?" और मन-ही-मन कहा - ''मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान, अपने-पराए में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझमें है।''
वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया।
उस दिन ईद थी। उसने उन्हें 'मुबारकबाद' कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोले - "इधर तशरीफ़ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।"
इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा-- "बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक्त बहुत कम है। आज तो माफ़ी चाहता हूँ।"
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलाँचें भरता हुआ बकरियों का एक दल, उनके पास से गुज़रा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक-साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा - "ये आपकी हैं?"
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया - "जी हाँ, जनाब! हमारी हैं। जानवर हैं, फ़र्क करना नहीं जानते।"

***

चित्रगुप्त दोहांजलि

चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।

विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।

कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।

वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, नेह नर्मदा नाद।

'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।

जो काया को मानते, परमब्रम्ह का अंश।
'सलिल' वही कायस्थ हैं, ब्रम्ह-अंश-अवतंश।

निराकार परब्रम्ह का, कोई नहीं है चित्र।
चित्र गुप्त पर मूर्ति हम, गढ़ते रीति विचित्र।

निराकार ने ही सृजे, हैं सारे आकार।
सभी मूर्तियाँ उसी की, भेद करे संसार।

'कायथ' सच को जानता, सब को पूजे नित्य।
भली-भाँति उसको विदित, है असत्य भी सत्य।

अक्षर को नित पूजता, रखे कलम भी साथ।
लड़ता है अज्ञान से, झुका ज्ञान को माथ।

जाति वर्ण भाषा जगह, धंधा लिंग विचार।
भेद-भाव तज सभी हैं, कायथ को स्वीकार।

भोजन में जल के सदृश, 'कायथ' रहता लुप्त।
सुप्त न होता किन्तु वह, चित्र रखे निज गुप्त।

चित्र गुप्त रखना 'सलिल', मन्त्र न जाना भूल।
नित अक्षर-आराधना, है कायथ का मूल।

मोह-द्वेष से दूर रह, काम करे निष्काम।
चित्र गुप्त को समर्पित, काम स्वयं बेनाम।

सकल सृष्टि कायस्थ है, सत्य न जाना भूल।
परमब्रम्ह ही हैं 'सलिल', सकल सृष्टि के मूल।

अंतर में अंतर न हो, सबसे हो एकात्म।
जो जीवन को जी सके, वह 'कायथ' विश्वात्म।


***

दोहा-हाइकु गीत

*
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
धूप-छाँव का खेल है
खेल सके तो खेल.
हँसना-रोना-विवशता
मन बेमन से झेल.

दीपक जले उजास हित,
नीचे हो अंधेर.
ऊपरवाले को 'सलिल'
हाथ जोड़कर टेर.

उसके बिन तेरा नहीं
कोई कहीं अस्तित्व.
तेरे बिन उसका कहाँ
किंचित बोल प्रभुत्व?

क्षमताओं की
कमी नहीं किंचित
समताओं की.
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
पेट दिया दाना नहीं.
कैसा तू नादान?
'आ, मुझ सँग अब माँग ले-
भिक्षा तू भगवान'.

मुट्ठी भर तंदुल दिए,
भूखा सोया रात.
लड्डूवालों को मिली-
सत्ता की सौगात.

मत कहना मतदान कर,
ओ रे माखनचोर.
शीश हमारे कुछ नहीं.
तेरे सिर पर मोर.

उपमाओं की
कमी नहीं किंचित
रचनाओं की.
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....

१२-८-२०१०
*


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